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वेद का एक वाक्य है –
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, यतो जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद् विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्म’ इत्यादि।
अर्थात जहाँ से यह सब दृश्यादृश्य भूत भौतिक सृष्टि उत्पन्न होती है, जिसके कारण स्थित रहती है और अन्त में यह सब की सब जिसमें विलीन हो जाती है, वही ब्रह्म है। ब्रह्म को सृष्टि का निमित्तकारण तो सभी आस्तिक लोग मानते हैं, परन्तु शांकरमत उसे निमित्त होने के साथ-साथ उपादान भी मानता है। यह बात सर्वसम्मत है कि प्रत्येक वस्तु अपने उपादान में ही लीन हो सकती है, अन्यत्र नहीं। प्रकृति वेद-वाक्य ने ‘यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ कहकर स्पष्ट रूप से समस्त सृष्टि का ब्रह्म में लय होना घोषित किया है। यदि ब्रह्म को उपादान न माना जाय तो उक्त वाक्य का स्वारसिक अर्थ सम्भव है। शंकर का ‘अभिन्ननिमित्तोपादान’ का सिद्धान्त माने बिना इस प्रकार के वेद-वाक्य अनुकूल नहीं हो सकते। हमारी राय में तो अभी आप इन बातों को छोडिये। यदि महाप्रलय होते समय भगवान कृपा करके आपको किसी मजबूत चबूतरे पर बिठा दें तब देख लीजियेगा कि मूलप्रकृति भी ब्रह्म में विलीन होती है या नहीं। अभी तो आप कुछ नीचे उतरकर दोनों को अलग-अलग समझते हुए ही विचार कीजिये।
अच्छा तो आप यह समझिये कि सृष्टि का आरम्भ होने वाला है। एक ओर जगज्जननी प्रकृति देवी हैं और दूसरी ओर जगत पिता पुराण-पुरुष या ब्रह्म। परन्तु इन दोनों में क्रिया होना असम्भव है। प्रकृति ठहरी जड़, न उसमें ज्ञान है, न इच्छा। इन दोनों के बिना ज्ञानपूर्वक या इच्छापूर्वक कृति होना अथवा सृष्टि की उत्पत्ति होना असम्भव है। अब रहा ब्रह्म, वह है व्यापक। फिर उसमें क्रिया कैसी ? जिसे हाथ-पैर हिलाने की कहीं ठौर ही नहीं, जिसे अपने से अले कोई स्थान ही नहीं, वह क्रिया क्या करेगा ? क्रिया करने के लिये तो कुछ हिलना-डुलना अवश्य पड़ेगा और जो सर्वव्यापक है, जिससे बाहर कोई स्थान ही नहीं वह क्रिया कहाँ करेगा ? काठ में कसके ठोंकी हुई कील और बोतल में ठूँस के भरी हुई रुई क्या क्रिया करेगी ? व्यापकत्व और क्रियात्व तो विरोधी धर्म हैं। ये दोनों एक जगह नहीं रह सकते। फिर जब न तो प्रकृति में क्रिया सम्भव है, न ब्रह्म में, तब सृष्टि की उत्पत्ति हुई कैसे ? लेकिन सृष्टि तो विद्यमान है। वह आंखों के सामने है। सृष्टि के अन्दर ही हम लेख लिख रहे हैं और वहीं आप उसे पढ़ रहे हैं। प्रत्यक्ष का अपलाप नहीं हो सकता। अब सोचिये कि यह बनी तो कैसे ? प्रकृति और पुरुष या जड़-चेतन के अतिरिक्त तो कोई वस्तु हो ही नहीं सकती और वे दोनों क्रिया करने में अक्षम हैं। बिना क्रिया के किसी की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। फिर सृष्टि कैसे बनी ?
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