श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की होली
मनुष्य की बुद्धि को एक बार ऊँचा उठाकर फिर उसे एकदम दबा देना युक्तियुक्त नहीं। ‘हम नहीं जानते’ इस प्रकार के अज्ञेयतावाद की अन्त में शरण लेना यदि उचित समझा जाय तो आरम्भ में ही इसे क्यों न मान लिया जाय ? जगत का कर्ता ईश्वर है, यह भी मानने की क्या आवश्यकता है ? हम अल्पज्ञ मनुष्य नहीं जानते कि इस जगत को किसने और किस रीति से उत्पन्न किया ? इस प्रकार के अज्ञेयतावाद से ईश्वर के अस्तित्व का सिद्धान्त भी बाधित हो जाता है। अतएव मनुष्य बुद्धि रूपी जिस डाल पर हम बैठे हैं, उस डाल को काट डालना भी उचित नहीं है। निर्गुण ब्रह्मवादी का अनिर्वचनीयतावाद पूर्वोक्त अज्ञेयतावाद से जुदी तरह का है। इसके अनुसार अविद्या का वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है, वह मिथ्या है, उसका निरूपण करना आवश्यक है, क्योंकि उसका निर्वचन करना समभव नहीं। 10-अनिर्वचनीय अस्तित्व को हम अस्तित्व नहीं मान सकते। अविद्या के अस्तित्व का पूर्णरूप से निषेध करने वाले दूसरे शांकर वेदान्तियों का यह सिद्धान्त है कि अविद्या जैसे परमात्मकृत नहीं है और मिथ्या होने के कारण परमात्मा अद्वितीयत्व का बाध नहीं करती वैसे ही वह जीवकृत भी नहीं है। जीव का जीवपना ही अविद्या है। जीव भाव और अविद्या एक ही वस्तु स्थिति के दो नाम हैं। अविद्या नाम की कोई सत् वस्तु नहीं है। जीव अपने आपको जीव मान बैठा है और वह जगत् को जगत समझता है और इस रीति से परमात्मा के सच्चे स्वरूप को देखते हुए भी नहीं देखता है, इसका ही नाम अविद्या है। जीव और जगत के वास्तविक अस्तित्व का निषेष करना ही अविद्या शब्द का तात्पर्य है। अविद्या कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिसके द्वारा जो जगत अब तक नहीं था, वह अब उसके द्वारा उत्पन्न किया गया हो। न तो वह आदि में थी, न अन्त में होगी और इसलिये वह वर्तमान में भी नहीं है ‘अदावन्ते चर यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।’ अविद्या तो नाम मात्र है। जगत केवल भासता है, तब तक इस कथन से ही चित् और सत् के साथ उसकी एकता का प्रतिपादन हो जाता है, क्योंकि ‘अस्ति’ और ‘भाति’ - होना और भासना- यअ ब्रह्म कर ही स्वरूप है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अनुवादक- गंगाप्रसाद महता, एम.ए.
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