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एक दिन घोर गर्मी के दिनों में सायंकाल को जबकि हवा भी बिलकुल बन्द थी, सन्नाटा छाया हुआ था, तुम एक निर्जन पहाड़ी सड़क पर से घूमने के लिये निकले। तुम्हारा मन खिन्न और भयाकुल था, क्योंकि तुम उस पर फिर मेरी अनन्त लीला को भूल गये थे। कुछ क्षण बाद उस सुनसान स्थान में तुम्हें एक मजदूरिन जाती हुई दिखलायी पड़ी। वह सारे दिन, कड़ी धूप को सिर पर लेकर खेत में घोर परिश्रम करके थकी-मांदी अपने झोंपड़े को वापस जा रही थी, जो कि वहाँ से बहुत दूर था। स्त्रभ का चित्त प्रसन्न था। चेहरे पर तेज था। वह धीमी चाल से, ग्राम्य गीत गाती हुई जा रही थी। उसके सिर पर एक भारी बोझ था और बगल में एक पोटली सी लटक रही थी जिसे उसने प्रेम से गले लगा रखा था। तुम उसे देखकर दंग रह गये कि दिनभर की थकी-मांदी मजदूरिन इतनी प्रसन्न क्यों है। पर जब तुम्हारी निगाह उस बगल में लटकती हुई पोटली पर पड़ी और तुम्हें मालूम हुआ कि उस पोटली में और कुछ नहीं, उसका लाडला बच्चा है और मातृहृदय का अपत्यस्नेह ही उसकी प्रसन्नता का मूल स्त्रोत है जो उसकी समस्त क्लान्ति और उदासी का उपहास कर रहा है। यह सब देखकर तुम्हारे शरीर में बिजली सी दौड़ गयी। क्या मातृ-प्रेम का वह अलौकिक चित्र तुम्हारे मस्तिष्क में सदा के लिये अंकित नहीं हो गया और समय-समय पर वह तुम्हें आनन्दित और प्रफुल्लित नहीं करता ? प्यारे मित्र ! वह मैं ही था जिसने उस प्रेम के रूप में तुम्हारे अन्दर गुदगुदी पैदा कर दी, जिससे तुम्हें मेरी आंख-मिचौनी का खेल स्मरण हो जाये। तुमने मुझे देखा, पर पकड नहीं सके। मैं मुसकुराकर फिर जा छिपा।
एक दिन तुम एक विद्यार्थी को गणित सिखा रहे थे। तुम उसे बतला रहे थे कि एक आदमी ने बकरी के कुछ बच्चों को बेचकर थोड़ा सा धन प्राप्त किया। बच्चा इस बात को सुनकर चौंक पड़ा। उसने पूछा– ‘गुरुजी ! उसने ऐसे सुन्दर-सुन्दर बच्चों को बेचने की मूर्खता क्यों की ? वे सदा इधर-उधर आनन्द से उछलते-कूदते, खेलते और हमारे चित्त को प्रसन्न किया करते थे। उसने उन्हें बेचकर धातु के थोड़े से टुकडे क्यों लिये ? तुम इस सीधे-सादे सुन्दर प्रश्न को सुनकर, जो निष्कपटता, सत्यता, कोमलता, प्रेम तथा साथ ही साथ आश्चर्य और विस्मय के चिह्नों को व्यक्त करते हुए उसके मुख से निकला था– विस्मित होकर विचारसागर में डूब गये।
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