श्रीकृष्णांक
चीर-हरण का रहस्य
एक बार भक्त-जीवों का अज्ञान हर लेने के बाद, अर्थात उसको साक्षात्कार की भूमिका पर पहुँचा देने के बाद भी भक्त को अपने अवशिष्ट प्रारब्ध के भोगने के लिये वाधितानुवृत्ति की आवश्यकता होती है, अत: शरण आये हुए भक्त को शरण देकर पहले उसके आवरण को दूर कर भगवान अपने उस भक्त के शेष जीवन के लिये ‘मायां ततान मोहिनीं’ इस वाक्य के अनुसार अपनी माया का विस्तार कर उसके जीवन के आवश्यक व्यवहार भगवान स्वयं ही कराते हैं, ऐसी अवस्था में जीवन्मुक्त में भी अज्ञान और उसके कार्य की ‘पश्वादिभिरविशेषात्’ इस न्याय से प्रतीति सी होती है, परन्तु वह ‘पाते तु’ इस वाक्य के अनुसार अवशेष प्रारब्ध-भोग हो जाने पर आप ही नष्ट हो जाते हैं। अत: भक्त को वह अपुनरावृत्ति-मोक्ष में बाधक नहीं होते। भगवान ने प्रह्लाद आदि अनेक भक्तों को उनकी इच्छा के विरुद्ध सांसारिक व्यवहार में नियुक्त करके अन्त में अपने नित्यधाम में सदा के लिये रखने का वचन दिया है। भक्तों को संसार और उसका व्यवहार भगवत्प्रसादरूप हो जाता है, इससे उनका जीवन जीवन-मुक्तों के सदृश बीतता है, ऐसे अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। इस प्रकार भगवान ने वस्त्र लौटाकर व्रजबालाओं को साक्षात्कार के पश्चात भगवत्प्रसादरूप जीवन बिताने की इच्छावली बना दिया। इससे यह दूसरा रहस्य भी जान पड़ता है कि लडकपन से ही भगवत्साक्षात्कार के पुरुषार्थ में लगकर भगवत्साक्षात्कार हो जाने के बाद अवशिष्ट सांसारिक जीवन को भगवत्प्रसादरूप बिताना चाहिये, जिससे अन्त में मोक्ष की प्राप्ति अवश्यक हो जाये। प्रह्लाद कहते हैं– कौमार आचरेत् प्राज्ञो धमान्भागवतानिह । इस प्रकार भगवत्साक्षात्कार करने के बाद शेष जीवन को भगवत्प्रसाद रूप में बितान का रहस्य भी इससे जाना जाता है। इस छोटे से लेख में तीन बातें विचारणीय हैं, एक तो सामान्य रूप से समझी जा सकती है कि भगवान अपने सच्चे भक्त को भूल करने से बचाते हैं। दूसरी, भक्त में जो संसार के प्रति आसक्ति के कारणरूप अज्ञान होता है उसको दूर करते हैं। और तीसरी यह कि लड़कपन से ही भगवत्प्राप्ति के मार्ग में प्रवृत्त होकर भगवत्प्राप्ति होने के बाद अवशेष जीवन भगवत्प्रसाद रूप से भगवान की इच्छा और भगवान की आज्ञानुसार ही बिताना चाहिये। भगवान के जीवन में अनेक रहस्य हो सकते हैं, भगवान का चरित्र अनेक रहस्यों की रचना करने के लिये ही होता है। इस लेख में तो हम चीर-हरण के रहस्य के द्वारा भगवत्प्राप्ति को अपना ध्येय बनाकर परमात्मा की शरण में रहकर, भगवत्प्राप्ति की चेष्टा करने वाली वृत्ति परम दयालु परमात्मा सबको दें, इस प्रकार जगद्गुरु परमात्मा के प्रति शुद्ध अन्त:करण से प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 7।6।9
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