श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की होली
इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य अपना अज्ञान विषयक उत्तरदायित्व परमात्मा पर आरोप न कर अपने ऊपर उसे रखने का यत्न करता है। जैसे रज्जु को सर्प समझने वाले मनुष्य की भ्रान्ति के लिये रज्जु का कोई दोष नहीं, वैसे ही रागद्वेष रूपी अज्ञान के लिये परमात्मा का कोई दोष नहीं, यही इस सिद्धान्त का निष्कर्ष है। परन्तु वासतव में कर्म और अविद्या के जाल में जीव का जकड़ने वाला कौन है ? इस प्रश्न का कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिलता, इस वृक्ष का बीज पहले वृक्ष में से, यह वृक्ष उसके भी पहले बीज में से, इस प्रकार वर्तमान अविद्या पूर्वजन्म के कर्मों से और वे कर्म उनके पहले की अविद्या से उत्पन्न होते हैं, यह उत्तर जो ठीक है। शांकर और रामानुज वेदान्त के अनुसार पूर्व जन्म के कर्मों की कारण रूप अविद्या एक ही चली आती है जो अनादि काल से है। अब हमें पूर्वोक्त दोष के अन्तिम समाधान पर कुछ विचार करना चाहिये। शंकर वेदान्ती कहता है कि जो तुम हमारा दूषण बतलाते हो, वही हमारा भूषण है। परमात्मा अविद्या को उत्पन्न करता है। यह तो हम भी सम्भव नहीं समझते। परमात्मा के साथ-साथ अनादिकाल से अविद्या चली आती है, यह भी सम्भव नहीं; क्योंकि परमात्मा के साथ अविद्या का योग करने से पद-पद पर दोष उत्पन्न होते हैं, परन्तु इसके साथ यह भी एक सिद्ध बात है कि अविद्या का हमें अनुभव होता ही है। इसलिये इन दोनों बातों को जैसी हैं, वैसी ही समझना चाहिये। अविद्या का अनुभव होता है, किन्तु उसके अस्तित्व मानने में असंख्य दोष उपस्थित होते हैं। वह परम सत् में से फलित नहीं होती, तथापि वह प्रतीत होती है। अतएव उसे सत्, असत्, अनिर्वचनीय कहा जाता है। अविद्या का वास्तविक स्वरूप ही अनिर्वचनीय कहा जाता है। अविद्या का वास्तविक स्वरूप ही अनिर्वचनीय है। जो जैसी वस्तु हो, उसे वैसा ही बतलाना एक बात का यथार्थ उत्तर है। निर्गुण ब्रह्मवादी के इा अनिर्वचनीयतावाद को सगुण ब्रह्मवादी के अज्ञेयता वाद से पृथक करके समझना चाहिये। सगुणवादी विश्व में अविद्या का अस्तित्व मानता है, किन्तु जब यह आक्षेप किया जाता है कि अविद्या परमात्मा की दया के साथ असंगत है, तब वह यह उत्तर देता है कि परम दयालु परमात्मा इस अविद्या के उत्पन्न करने में क्या हेतु होगा ? इसे हम अपनी अल्पज्ञता के कारण समझ नहीं पाते ? किन्तु हमें यह मान लेना चाहिये कि उस ‘दयासिन्धु दीनबन्धु’ का अविद्या के उत्पन्न करने में हेतु कुछ अच्छा ही होगा। परन्तु यह उत्तर भी समीचीन नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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