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कर्मयोगी एवं युग-प्रवर्तक के रूप में श्रीकृष्ण का यही मुख्य कार्य था। उनके बालकपन के अनेक साहसिक कार्य, भयानक पशु-पक्षियों और सरीसृपों जैसे दुष्ट घोड़ों, पागल सांडों, हिंसक गीधों, अजगरों और सांपों, विशालकाय पक्षियों और अनेक प्रकार के उडने वाले सांपों (जिनमें से कुछ बचे-खुचे उस समय भी पर्वतों की कन्दराओं में रहते थे) और गोकुल के आसपास की पहाडियों और गुफाओं तथा जंगलों और नदियों में रहने वाले डाकुओं के साथ युद्ध करके उन्हें यमलोक पहुँचा देना, अपने साथ खेलने वाले ग्वालबालों तथा उनकी गौओं और बछड़ों के गोवर्धन-पर्वत के अन्दर एक गुफा में ले जाकर प्रलयकाल की सी वर्षा से जो लगातार सात दिन तक होती रही, उनकी रक्षा करना, इन सारी घटनाओं पर अनेक भक्ति-रसपूर्ण, कल्पनायुक्त, अत्युक्तियों से अतिरंजित एवं रहस्यपूर्ण काव्यों की रचना हुई है, जिनसे अंग्रेज-कवि के शब्दों में शिक्षा की शिक्षा मिलती है और काव्य का सौन्दर्य बढ़ता है। यहाँ हम उनका प्रसंगवश उल्लेखमाद्ध करके ही संतोष करेंगे, हां, उदाहरण के लिये हमए एक घटना का विशेष रूप से वर्णन करेंगे।
कालिय-नाग ने यमुना के किनारे रहकर वहाँ के जल को विष-दूषित कर रखा था। एक दिन श्रीकृष्ण ने जब वे निरे बालक थे, देखा कि कालिय-नाग नदी में तैर रहा है, वे तुरन्त ही नदी में कूछ पड़े और लडकर उसे बाहर निकालने की चेष्टा करने लगे। उस भयानक सर्प ने इन्हें देखकर अपना सिर उठाया और बड़े क्रोध से वह इनकी ओर झपटा। श्रीकृष्ण ने उसके सिर को पकड़कर पानी के अन्दर डुबा दिया। सर्प का दम घुटने के कारण वह छटपटाने लगा और किसी तरह वह श्रीकृष्ण से अपना पिण्ड छुडाकर भागा और लौटकर उसने फिर कभी अपना मुंह न दिखया। यह तो हुआ इस छोटी सी कथा का स्थूल रूप। इसका गूढ रहस्य कुछ और ही है, जो आगे चलकर स्पष्ट किया जावेगा। कुद पुराणों में लिखा है कि कालिय-नाग के पांच सिर थे और श्रीकृष्ण उनके ऊपर चढ़कर विजय-गर्व से नृत्य करने लगे। मेरी समझ में इसका तात्पर्य कदाचित यह है कि आत्मा को पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये और चेष्टा करने से वह ऐसा कर भी सकता है।
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