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महाभारत में कथा आती है कि वहाँ उनके कुटुम्बियों एवं निकट सम्बन्धियों ने जिनकी संख्या क़रीब पांच लाख के थी शराब से तथा शक्ति के मद से, जो उससे भी अधिक मादक होता है, मतवाले होकर एक-दूसरे का क्षय कर डाला। इस प्रकार उन्होंने अपने समय के अन्तिम दुर्जेय एवं आततायी क्षात्र-बल का संहार करके कृषि एवं वाणिज्य के द्वारा शान्तिपूर्वक जीवन-निर्वाह करने वाले तृतीय वर्ण के लिये मार्ग साफ कर दिया। हरिवंश, गर्गसंहिता, ब्रह्मवैवर्त आदि दूसरे पुराणों में समुद्र के पार दूसरे द्वीपों और महाद्वीपों में जाकर वहाँ के क्षात्रबल का ध्वंस करने का वृत्तान्त भी मिलता है।
पिछले विश्वव्यापी महायुद्ध में जो नवम्बर सन 1918 में थोड़े दिनों के लिये बन्द होकर सन् 1919 की सन्धि के बाद सदा के लिये बन्द हुआ था, कम से कम अस्सी लाख (और कुछ लोगों के अनुमान से एक करोड़ तीस लाख) मनुष्यों का संहार बतलाया जाता है। इस संख्या को देखकर भारतीय युद्ध के जन संहार की संख्या को काल्पनिक बतलाकर हम उसके विषय में शंका नहीं कर सकते। महाभारत एवं तत्कालीन अन्यान्य युद्धों के जनसंहार का ही यह सुन्दर फल था कि सनातन धर्म ने उसके बाद लगातार पच्चीस सौ वर्ष तक अपना सिर ऊँचा उठाये रखा।
इसके बाद फिर उसका ह्रास प्रारम्भ हुआ और उसे जरा-व्याधि ने आ घेरा। तब बुद्ध को इस पृथ्वी पर आना पड़ा। उन्होंने बुद्धिवाद, पारस्परिक प्रेम, सदाचार, अहिंसा और त्याग पर विशेष जोर दिया और इस प्रकार सनातन धर्म का परिष्कार कर उसे एक हजार वर्ष तक और जीवित रखा।
जब उसमें एक बार फिर खराबी आयी तब शंकर, रामानुज प्रभृति आचार्यों ने तथा नानक-कबीर, सूर-तुलसी, रामदास-तुकाराम, चैतन्य–मीराबाई आदि भक्त-कवियों और सन्त-महात्माओं ने धर्म के संशोधन और पुनरुद्धार का कार्य सम्पन्न किया। उनके बाद भी धर्मसंस्थापन का कार्य क्रमश: अन्यान्य महापुरुषों एवं विभूतियों के द्वारा बराबर होता रहा। संसार के सुधार का कार्य अनवरतरूप से जारी रहता है। सुधार और बिगाड़ करने वाली शक्तियां एक साथ एवं लगातार काम करती रहती हैं। कभी एक का पलड़ा भारी हो जाता है, कभी दूसरी का।
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