श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव
महाभारत आदि ये यह स्पष्ट सिद्ध है कि अवतार रूप में प्रकट हुए भगवान को सब ऋषिगण नहीं पहचान सकते थे। उनमें से कोई-कोई तत्ववेत्ता महात्मा महर्षि ही भगवान की कृपा से उसको जानते थे– क्योंकि भगवान जिस शरीर में जन्म ग्रहण करते हैं उसी शरीर के समान सब चेष्टा करते हैं। जब भगवान मनुष्य शरीर में अवतीर्ण होते हैं तब मनुष्य के अनुसार चेष्टा करते हैं। उस समय उनके मनुष्योचित कर्मों को देखकर मुनिगणों को भी भ्रम हो जाता है, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? श्रीवसिष्ठ जी ने कहा है– महाभारत के अश्वमेध पर्वत के 53वें अध्याय में कथा है कि कौरव-पाण्डवों के युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर महाराज से आज्ञा लेकर भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर को जा रहे थे। मार्ग में मरुस्थल में निवास करने वाले गुरुभक्त तपस्वी ऋषि उत्तंक से उनकी भेंट हुई। पांच पाण्डवों के सिवा अन्य सारे कौरवों के विनाश की बात भगवान श्रीकृष्ण के मुख से सुनकर ऋषि उत्तंक को बड़ा क्रोध आ गया और वे उनसे बोले कि 'आपने सब प्रकार से शक्ति सम्पन्न होने पर भी युद्ध का निवारण नहीं किया, इसलिये मैं आपको शाप दूँगा'। भगवान बड़े दयालु थे, उन्होंने मुनि को शाप देने से रोककर कहा कि, 'हे तपस्विश्रेष्ठ ! तुमने अपने गुरु को प्रसन्न किया है, जिससे तुम्हारे तप का बड़ा तेज है, मैं उस तप का नाश कराना नहीं चाहता, मुझ पर तुम्हारे शाप का कोई असर नहीं होगा, शाप देने से तुम्हारे तप का नाश हो जायगा। इसलिये तुम मेरे अध्यात्म विषयक आत्म तत्व और प्रभाव की बातें सुनो'। तदनन्तर ५४वें अध्याय में ऋषि उत्तंक के पूछने पर भगवान ने अपने अवतार लेने का कारण तथा प्रभाव और स्वरूप का वर्णन किया है– बह्वी: संसरमाणो वै योनीर्वर्तामि सत्तम । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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