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जिस किसी ने भी तुम्हारे परम प्रेम का यत्किंचित भी रसास्वादन कर लिया, लीलामय ! वह अपने जीवन का सर्वस्य पा चुका, इसमें सन्देह नहीं। लो, गया था वह गाहक केवल प्रेम खरीदने, और ज्ञान उसे इस नेह के सौदे में मुफ्त में ही मिल गया। तुम्हारा सच्चा प्रेमी स्वभावत: ही ऊँचा ज्ञानी होता है। पर वही प्रेमी, जिसने अपने सर को धड़ से उतारकर पैरों से कुचल डाला है, जिसने अपनी खुदी या हस्ती को खाक में मिला दिया है– अरे, जिसने हँसते-हँसते, पगली मीरा की तरह, जहर के प्याले को चूमकर चढ़ा लिया है, या जिसने मस्तान ने मंसूर या सनकी सरमद की तरह अपने प्यारे की खातिर एक मीठे बोसे के साथ रंगीली तलवार को गले से लिपटा लिया है। तुम्हारे ऐसे मतवाले आशिक के ज्ञान-विज्ञान का कुछ पार, तुम्हारे दिल तक का भेद जिस मरजीवा प्रेमी ने बड़ी खूबसूरती के साथ खोल लिया है, उसके लिये फिर इस नाचीज दीन या दुनिया की ऐसी कौनसी पहेली खोलने को रह गयी ? प्रभो ! तुम्हारे असीम प्रेम का अगाध अनुभव हो जाना ही परम ज्ञान है।
तुम्हारे प्रेम-रस का यदि हमें चसका नहीं लगा तो भाड में जाय वह न्याय-वैशेषिक के सूत्रों का सार-हीन झगडा या सांख्य-वेदान्त के शुष्क शब्दों का वाहियात पड़ा। यह सब ज्ञान तो हमें तुम्हारी ज्ञान-गरिमामयी गीता की प्रेम पदावली से ही प्राप्त हो जायेगा। पर कब ? जब, हे हृदयाकर्षक कृष्ण ! हम तुम्हारी उस मुन मन मोहिनी मुरली का नाद रस पीने के हेतु प्रेम विह्वल हो तुम्हारे चरणों की और दौड़ पडे़गे। सो अब खींच लो, अय प्यारे कृष्ण ! अपने कदमों की तरु खींच लो। नाथ ! मुझे भी आज अपनी लगन की मजबूत डोरी से कसकर बांध लो। मुझे भी आज अपने प्रेम-माधुर्य का वारण्ट दिखाकर गिरफ्तार कर लो। पकड़कर उधर ही खींच लो, ओ खींचने वाले काले चांद ! बन्द कर दो, मुझे भी बन्द कर दो अपने कदमों के कारागार में। हां, उसी जेल में, जहाँ का जेलर तुम्हारा प्यारा प्रेम है। ओह ! कितने गुनाह किये हैं, कितने जुर्म किये हैं मैंने, कुछ ठिकाना ! फिर भी तुम मुझे सजा नहीं देते ? तुम कैसे मुंसिफ हो, कृष्ण ! प्यारे कृष्ण ! प्राणेश्वर कृष्ण ! खींच लो, इस पतित पापी को अपने चरणों की ओ, आज ही खींच लो, अभी खींच लो !
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