कृष्णदास
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पूरा नाम | कृष्णदास |
जन्म | संवत 1553 (1496 ई.) विक्रमी |
जन्म भूमि | तिलोतरा, राजनगर, गुजरात |
मृत्यु | संवत 1636 (1579 ई.) विक्रमी |
अभिभावक | केशवदास मिश्र और तारावती |
कर्म भूमि | ब्रज |
कर्म-क्षेत्र | कवि |
मुख्य रचनाएँ | 'जुगलमान चरित', 'भ्रमरगीत', 'प्रेमतत्त्व निरूपण', 'राग-कल्पद्रुम', 'राग-रत्नाकर' आदि। |
विषय | सगुण भक्ति काव्य |
भाषा | ब्रज भाषा |
प्रसिद्धि | संत कवि |
नागरिकता | भारतीय |
दीक्षा गुरु | महाप्रभु वल्लभाचार्य |
अन्य जानकारी | भक्ति और श्रृंगार मिश्रित प्रेमलीलाएँ 'रासलीला' के सम्बन्ध में कृष्णदास ने अनेक पद लिखे। 'युगल-मान-चरित्र' की रचना-माधुरी और विशिष्ट कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर श्रीविट्ठलनाथ ने उनको 'अष्टछाप' में स्थान दिया। |
कृष्णदास अष्टछाप के प्रथम चार कवियों में अन्तिम थे। उनमें असाधारण बुद्धिमत्ता, व्यवहार-कुशलता और संघटन की योग्यता थी। कृष्णदास को साम्प्रदायिक सिद्धान्तों का बहुत अच्छा ज्ञान था और भक्तगण उनके उपदेशों के लिए अत्यन्त उत्सुक रहा करते थे। वे जन्म से शूद्र होते हुए भी वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मंदिर के प्रधान हो गए थे।
परिचय
कृष्णदास जी का जन्म संवत 1553 (1496 ई.) विक्रमी में गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद जनपद में चलोतर नामक गांव में हुआ था। वे कुनबी परिवार सम्बंध रखते थे। इनके पिता का नाम केशवदास मिश्र तथा माता का नाम तारावती था। पांच वर्ष की अवस्था से ही कृष्णदास भगवान के लीला-कीर्तन, भजन तथा उत्सवों में सम्मिलित होने लगे थे।
सत्यनिष्ठ और निडर
बाल्यावस्था से ही बड़े सत्यनिष्ठ और निडर थे। जब कृष्णदास बारह साल के थे, उनके गांव में एक बंजारा आया, उसने माल बेचकर बहुत-सा रुपया जमा किया था। कृष्णदास के पिता गांव के प्रमुख थे। उन्होंने रात में उसका रुपया लुटवाकर हड़प लिया। कृष्णदास के सीधे-सादे हृदय पर इस घटना ने बड़ा प्रभाव डाला। उन्होंने अपने पिता के विरुद्ध बंजारे द्वारा न्यायालय में अभियोग चलाया और उनके साक्ष्य के फलस्वरूप बंजारे को उसका पैसा मिल गया। इस घटना के कारण इनके पिता को मुखिया के पद से हटा दिया गया। पिता द्वारा कृष्णदास घर से निकाल बाहर किये गये, जिस कारण अब वे तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े।
ब्रज आगमन तथा दीक्षा
कृष्णदास भ्रमण करते हुए ब्रज में आ गये। उसी समय श्रीनाथ जी का स्वरूप नवीन मन्दिर में प्रतिष्ठित किया जाने वाला था। श्रीनाथ जी के दर्शन कर वे बहुत प्रभावित हुए। जब महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य अड़ैल से ब्रज जा रहे थे। उन्होंने 'गऊघाट' पर अभी दो-चार दिन पहले ही सूरदास को ब्रह्मसम्बन्ध दिया था। महाप्रभु ने मथुरा के विश्रामघाट पर युवक कृष्णदास को देखा। देखते ही समझ लिया कि बालक बड़ा संस्कारी है। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उनको दीक्षित कर ब्रह्मसम्बन्ध दिया। वे सन 1509 ई. में 'पुष्टिमार्ग' में दीक्षित हुए थे।
अष्टछाप के कवि
आचार्य वल्लभाचार्य से मन्त्र प्राप्त करते ही उन्हें सम्पूर्ण भगवल्लीला का स्मरण हो आया। आचार्य ने उनको श्रीनाथ जी के मन्दिर का अधिकारी नियुक्त किया। उनकी देखरेख में श्रीनाथ जी की सेवा राजसी ठाट से होने लगी। दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धि फैल गयी। वे श्रीनाथ जी की सेवा करते और सरस पदों की रचना करके भक्तिपूर्वक समर्पित करते थे। उनके पद अधिकांशत: श्रृंगार-भावना-प्रधान हैं। भक्ति और श्रृंगार मिश्रित प्रेमलीलाएँ 'रासलीला' के सम्बन्ध में उन्होंने अनेकानेक पद लिखे। 'युगल-मान-चरित्र' की रचना-माधुरी और विशिष्ट कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर श्रीविट्ठलनाथ ने उनको 'अष्टछाप' में गौरवपूर्ण स्थान से सम्मानित किया। वे आजीवन अविवाहित रहे।
संक्षिप्त कथा प्रसंग
एक समय किसी विशेष कार्य से कृष्णदास जी आगरा गये थे। उस समय आगरा भौतिक ऐश्वर्य और कला का केन्द्र था। कृष्णदास बाज़ार में सौदा कर रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि एक वेश्या पर पड़ गयी। वह मधुर, सरस और अत्यन्त कोमल कण्ठ से गाना गा रही थी। भगवान के भक्त के हृदय में सात्त्विक भाव उमड़ आये। विषयोन्मत्त वारांगना के उद्धार का समय आ गया। भगवान के यश-गायक के दर्शन से उसकी भावनाएं पवित्र हो चली थीं। कृष्णदास ने सोचा कि यह अभिशापग्रस्त दैवी जीव है। यदि मेरे 'लाला' साक्षात नन्दनन्दन को रिझाये, उनके सामने पद गाये तो इसके भवसागर से पार होने में कुछ भी संदेह नहीं है। उन्होंने वारांगना से कहा कि- "क्या तुम मेरे बाल-गोपाल श्रीनाथ जी के सामने पद गाओगी।" कृष्णदास के हृदय में वात्सल्य का सागर लहरा उठा। वारांगना उनके अनुरोध को अस्वीकार नहीं कर सकी। भक्त ने तो उसकी कला को, सरस गायकी को श्रीनाथ जी के चरणों में समर्पित कर दिया था। अपने रसिकशेखर लाला को रिझाने के लिये वे उसे आगरा से ब्रज ले आये। वारांगना ने विधिपूर्वक स्नान किया, पवित्र और स्वच्छ वस्त्र धारण किये। कृष्णदास ने उससे कहा कि- "तुमने विषयी जीवों को बहुत रिझाया है, आज मेरे लाल को, व्रजेश्वर को रिझाकर अपना जन्म सफल करो।" वेश्या के जन्म-जन्म के पुण्य प्रकट हो गये। श्रीनाथ जी की उत्थापन-झांकी का समय था, यशोदानन्दन मन्द-मन्द मुसकरा रहे थे। कृष्णदास आनन्दनिमग्न थे। उनके लाला का श्रृंगार अत्यन्त अद्भुत था। वारांगना ने कृष्णदास का रचित पद समर्पित किया। सातों स्वर एक साथ उसकी पायल-ध्वनि पर नाच उठे। मृदंग और झांझ, वीणा और करताल के ताल-तुक पर, लय-यति पर वातावरण के कण-कण में रस भर उठा। वारांगना की अधरामृत-लहरी श्रीनाथ जी के चरण पखारने लगी।
"मो मन गिरिधर छबि पै अटक्यौ।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि कैं चिबुक चारु गड़ि ठटक्यौ।।
सजल स्याम घन बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यौ।
'कृष्णदास' किए प्रान निछावरि, यह तन जग सिर पटक्यौ।।
गीत समाप्त होते ही श्रीनाथ जी के अंग से एक ज्योति निकली, वारांगना उसी में लीन हो गयी। उसके प्राण भगवान की सेवा में समर्पित हो गये। कृष्णदास के लाला की रीझ तो न्यारी ही थी। जिनके चरणारविन्द मकरन्द के रसास्वादन के लिये त्रिदेव ब्रज में परिक्रमा करते रहते हैं। उन्होंने भक्त की मनोकामना पूरी कर दी। कृष्णदास के रसिक गोपाल ने उनको धन्य कर दिया। भक्त ने उपहार दिया था, अस्वीकार करना कठिन था।
रचनाएँ
कृष्णदास ने और सब कृष्ण भक्तों के समान राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार रस के ही पद गाए हैं। ‘जुगलमान चरित’ नामक इनका एक छोटा-सा ग्रंथ मिलता है। इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं- 'भ्रमरगीत' और 'प्रेमतत्त्व निरूपण'। इनका कविता काल सन 1550 के आसपास माना जाता है।
मृत्यु
संवत 1636 (1579 ई.) विक्रमी के लगभग कृष्णदास एक कुआं बनवा रहे थे। उसका निरीक्षण करते समय वे कुएं में गिर पड़े। इस दुर्घटना से उनकी मृत्यु हो गयी। श्रीगोसाईं जी ने कुएं को पूरा कराकर उनकी आत्मा को शान्ति दी। नि:संदेह तत्कालीन 'पुष्टिमार्ग' के भक्तों और महाप्रभु के शिष्यों में उनका व्यक्तित्व अत्यन्त विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्वीकार किया जाता है। वे बहुत बड़े भगवदीय थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
सहायक ग्रन्थ-
- चौरासी वैष्णवन की वार्ता;
- अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय : डा. दीनदयाल गुप्त:
- अष्टछाप परिचय: श्री प्रभुदयाल मीतल।
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