कुटिल विनु और न कोई आवै।
तौ ब्रजराज प्रेम की बातै, ताकै हाथ पठावै।।
प्रीति पुरातन सुमिरि साँवरे, सुरति सँदेसे दीन्हे।
ते अलि कहत और की औरै, स्रुति की मति उर लीन्हे।।
एऊ सखा कह्यौ नहि मानत, गहे जोग की टेक।
ऐसे ‘सूर' बहुत मधुवन मैं, कहा दोष हरि एक।।4015।।