किस साहस से प्रियतम के समीप मैं जाऊँ ?
तन-मन मलिन अपार किस तरह मुख दिखलाऊँ ?
किस मुख उनसे कहूँ, मुझे दो पद-पङ्कज प्रिय!
शुचि पद-रज दे, मुझे बना दो शुद्ध सवमय॥
मान नहीं मन रहा किंतु, मचला वह अतिशय।
चलो, चलो प्रियकी संनिधि में, छोड़ो भ्रम-भय॥
उठने लगी, गिरी फिर अपनी ओर देखकर।
घृणित दोष से पूर्ण हाय! मैं जाऊँ क्योंकर ?
रूप-शील-सौन्दर्य-सद्गुणों के वे सागर।
अतुलनीय अनुपम सब विधि प्रियतम नट-नागर॥
मेरे सदृश न कोई पामर नीच घृणित जन।
मिलनेच्छा का त्याग तदपि करता न हठी मन॥
तम-घन इच्छा करे सूर्य से मिलने की ज्यों।
मेरा मन भी श्याम-मिलन-इच्छा करता त्यों॥
पर साहस न जुटा पायी, स्थिति हुई भयानक।
मर्मव्यथा अति असहनीय जग उठी अचानक॥