किसोरी देखत नैन सिरात।
बलि बलि सुखद मुखारविंद की, चंद्र-बिंब दुरि जात।।
अध-मोचन लोचन रतनारे, फूले ज्यौं जलजात।
राजत निकट निपट स्रवननि कैं, पिसुन कहत मन-बात।।
गौर ललाट-पाट पर सोभित, कुंचित कच अरुझात।
मानो कनक-कमल-मकरंदहिं, पीवत अलि न अघात।।
नकवेसरि बंसी कै संभ्रम, नैन मीन अकुलात।
अरु ताटंक कमठ घूंघट उर, जाल बाझि अफनात।।
स्याम कंचुकी तामैं सोभित, कंचन कलस न मात।
मानहु मत्त गयंद कुंभनि पर, नील धुजा फहरात।।
नख सिख लौं रस रूप किसोरी बिलसत साँवल-गात।
यह सुख देखत सूर और सूख, उडे़ पुराने पात।।1206।।