कालिय नाग

कालिय के फन पर नृत्य करते श्रीकृष्ण

कालिय नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था। वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में एक कुण्ड में आकर रहने लगा था। यमुना का यह कुण्ड गरुड़ के लिए अगम्य था, क्योंकि इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा डाला था, इसीलिए महर्षि सौभरि ने गरुड़ को शाप दिया था कि यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। कालिय नाग यह बात जानता था, इसीलिए वह यमुना के उक्त कुण्ड में रहने आ गया था।

यमुना में विष प्रभाव

कालिय नाग जिस कुण्ड में निवास करता था, उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे। श्रीकृष्ण ने देखा कि कालिय नाग के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुना भी दूषित हो गई है। इसीलिए एक दिन अपने सखाओं के साथ गेंद खेलते हुए कृष्ण ने अपने सखा श्रीदामा की गेंद यमुना में फेंक दी। अब श्रीदामा गेंद वापस लाने के लिए कृष्ण से जिद करने लगे। सब सखाओं के समझाने पर भी श्रीदामा नहीं माने और गेंद वापस लाने के लिए कहते रहे।

कृष्ण से संघर्ष

कृष्ण ने सखाओं को धीरज बंधाया और पास के एक कदम्ब के पेड़ पर चढ़ गए। श्रीकृष्ण के द्वारा स्पर्श करने पर कदम्ब का वह पेड़ जो ठूंठ हो चुका था, फिर से सहसा हरा-भरा हो उठा। उसमें जनजीवन की बहार आ गई। कदम्ब पर चढ़कर कृष्ण ने यमुना के जल में छलांग लगा दी। उनके जल में कूदते ही यमुना का जल इस प्रकार आप्लावित हुआ जैसे यमुना में कोई बृहदाकार कोई वस्तु आ गई हो। फिर आप्लावित जल यमुना के किनारों से भी ऊपर आ गया। ‘'कालिय'! कृष्ण ने इस भयंकर विषधर को चेतावनी देते हुए कहा- "अब निरीह प्राणियों पर होने वाले अत्याचारों का समय समाप्त हो चुका है।" अपनी अनेक पत्नियों और पुत्रों के साथ कालियदह में निवास करता हुआ कालिय भुजंग एक बालक की चेतावनी सुनकर क्रोध में फुफकार उठा और तुरंत अपने निवास स्थान से बाहर निकल आया। कालिय ने फुफकारते हुए भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया।

सभी ग्वाल-बाल चिंता-निमग्न हुए कृष्ण की लीला को निहार रहे थे। उनमें से कुछ ग्वाल-बाल वृंदावन में नंद-यशोदा के पास जाकर इस बात की सूचना दे आए कि कृष्ण कालियदह में यमुना में कूद गए हैं और अब कालिय नाग से युद्ध कर रहे हैं। कालिय ने कृष्ण को एक साधारण बालक समझकर अपनी कुंडली में दबोच लिया और उन पर भयंकर विष की फुफकारें छोड़ने लगा, किंतु उस समय कालिय को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब उसकी तीव्रतम फुफकारों का भी उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। कृष्ण को कालिय भुजंग की कुंडली में जकड़ा देखकर माता यशोदा काँप उठीं कि उनके कोमल शरीर वाले प्राणों से प्रिय दुलारे को कालिय नाग ने कितनी बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। माता यशोदा दौड़ती हुई यमुना की ओर बढ़ने लगीं और यमुना के जल में कूदना ही चाहती थीं कि उन्हें वहाँ उपस्थित ग्वालों ने संभाल लिया। वृंदावन के सभी बाल-वृद्ध इस समय यमुना तट पर आ खड़े हुए थे। उनके मन में कृष्ण के प्रति गहन चिंता और नयनों में वियोग के आँसू थे। अब वे इस बात को समझ चुके थे कि कृष्ण कालिय नाग से युद्ध में जीत नहीं सकते, इसलिए उनकी व्याकुलता और भी बढ़ गई थी।

कालिय की पराजय

लगभग दो घंटे तक कालिय ने कृष्ण को एक सामान्य बालक की भाँति ही अपने कुंडली पाश में जकड़े रखा। जब कृष्ण ने देखा कि वृंदावन के समस्त नर-नारी उनके वियोग में बुरी तरह तड़प रहे हैं और नंद-यशोदा की दशा तो इतनी बिगड़ चुकी है कि वे कदाचित मृत्यु के निकट ही जान पड़ते हैं, तो उन्होंने एक झटके में ही स्वयं को कालिय की कुंडली से विमुक्त कर लिया। कृष्ण उस विकराल सर्प पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे गरुड़ किसी सर्प को अपना शिकार बनाता है। कालिय कृष्ण के प्रहारों को सहन न कर सका और शीघ्र ही थककर चूर हो गया। कृष्ण उछलकर कालिय के फनों पर चढ़ गए और उस पर पैरों से प्रहार करने लगे। वृंदावन के सभी नर-नारियों ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के एक हाथ में बाँसुरी थी और दूसरे हाथ में वह गेंद थी, जिसे लेने का बहाना बनाकर वे यमुना में कूदे थे। कालिय नाग के फनों पर पाद-प्रहार करते हुए वह उन पर नृत्य कर रहे थे और बाँसुरी बजा रहे थे। कृष्ण के पाद-प्रहारों से कालिय शीघ्र ही रक्त-वमन करने लगा। उसका शरीर निस्तेज और निर्बल होता चला गया। कृष्ण को इस स्थिति में नृत्य करते देख वृंदावनवासियों ने उनकी उच्च स्वर में जय-जयकार करनी आरंभ कर दी। अपने सबल पति को इस प्रकार निर्बल होते देख नाग-पत्नियाँ तुरंत समझ गईं कि उनके पति पर विजय पाने वाला यह बालक कोई सामान्य बालक नहीं, बल्कि साक्षात परमेश्वर ही हैं। नाग-पत्नियाँ तुरंत अपनी सभी संतानों को लेकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण में आ गईं और नतमस्तक होकर उनकी स्तुति करने लगीं।

अभयदान

नाग-पत्नियों द्वारा इस विनती से श्रीकृष्ण दयार्द्र हो उठे और उन्होंने कालिय नाग को अपने पाश से मुक्त कर दिया। पाश से मुक्त होते ही कालिय नाग के शरीर में प्राण का संचार होने लगा। यह भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख अपने समस्त फन झुकाकर विनीत स्वर में बोला- "हे स्वामी! आपको पहचानने में मुझसे भूल हो गई।" श्रीकृष्ण ने उनकी स्तव-स्तुति से प्रसन्न होकर कालिय नाग को अभय प्रदान कर सपरिवार 'रमणक द्वीप' में जाने के लिए आदेश दिया तथा उसे अभय देते हुए बोले- "अब तुम्हें गरुड़ का भय नहीं रहेगा। वे तुम्हारे फणों पर मेरे चरणचिह्न को देखकर तुम्हारे प्रति शत्रुता भूल जायेंगे।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुना का जल विषैला कर दिया है। तब यमुनाजी को शुद्ध करने के विचार से उन्होंने वहाँ से सर्प को निकाल दिया। राजा परीक्षित ने पूछा- 'ब्रह्मन! भगवान श्रीकृष्ण ने यमुनाजी के अगाध जल में किस प्रकार उस सर्प का दमन किया? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशा में वह अनेक युगों तक जल में क्यों और कैसे रहा? सो बतलाइये। ब्रह्मस्वरूप महात्मन! भगवान अनन्त हैं। वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं। गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है। भला, उसके सेवन से कौन तृप्त हो सकता है?

Kaliya-Mardan-krishna-2.jpg

श्रीशुकदेवजी ने कहा- "परीक्षित! यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदे लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे। परीक्षित! भगवान का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिये होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े। यमुनाजी का जल साँप के विष के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रहीं थीं। पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के कूद पड़ने से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फ़ैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्ण के लिये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण कालियादह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करने पर उनकी भुजाओं की टक्कर से जल में बड़े जोर का शब्द होने लगा। आँख से ही सुनने वाले कालिय नाग ने वह आवाज़ सुनी और देखा कि कोई मेरे निवासस्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आ गया। उसने देखा कि सामने एक साँवला-सलोना बालक है। वर्षाकालीन मेघ के समान अत्यन्त सुकुमार शरीर है, उसमें लगकर आँखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं। उसके वक्षःस्थल पर एक सुनहली रेखा-श्रीवत्स का चिह्न है और वह पीले रंग का वस्त्र धारण किये हुए है। बड़े मधुर एवं मनोहर मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान अत्यन्त शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमल की गद्दी हो। इतना आकर्षक रूप होने पर भी जब कालिय नाग ने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जल में मौज से खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने श्रीकृष्ण को मर्मस्थानों में डंसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया।

भगवान श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चाताप और भय से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँ-सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था। गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दुःख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।

इधर ब्रज में पृथ्वी, आकाश और शरीरों में बड़े भयंकर-भयंकर तीनों प्रकार के उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बात की सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटने वाली है। नन्दबाबा आदि गोपों ने पहले तो उन अशकुनों को देखा और पीछे से यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलराम के ही गाय चराने चले गये। वे भय से व्याकुल हो गये। वे भगवान का प्रभाव नहीं जानते थे। इसलिये उन अशकुनों को देखकर उनके मन में यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्ण की मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी क्षण दुःख, शोक और भय से आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, अन और सर्वस्व जो थे। प्रिय परीक्षित! ब्रज के बालक, वृद्ध और स्त्रियों का स्वभाव गायों जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मन में ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैया को देखने की उत्कृष्ट लालसा से घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े। बलरामजी स्वयं भगवान के स्वरूप और सर्वशक्तिमान हैं। उन्होंने जब ब्रजवासियों को इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी। परन्तु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण का प्रभाव भलीभाँति जानते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्ण को ढूँढने लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्ग में उन्हें भगवान के चरणचिह्न मिलते जाते थे। जौ, कमल, अंकुश आदि से युक्त होने के कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस प्रकार वे यमुना तट की ओर जाने लगे।

परीक्षित! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, ब्रज और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले। उन्होंने दूर से ही देखा कि कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं। यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मुर्च्छित हो गये। गोपियों का मन अनन्त गुणगुणनिलय भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान के सौहार्द, उनकी मधुर मुस्कान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवनसर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे।

माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमल लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे ब्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं। परीक्षित! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान बलरामजी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया।

परीक्षित! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि ब्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं। उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उन पर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा। इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे। भगवान के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेंट ले-लेकर उसी समय भगवान के पास आ पहुँचे। परीक्षित! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया।

तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखों से विष उगलने लगता और क्रोध के मारे जोर-जोर से फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरों में से जिस सिर का ऊपर उठाता, उसी को नाचते हुए भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणों की ठोक से झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर जो खून की बूँदे पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो। परीक्षित! भगवान के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिय के फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँह से खून की उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत के आदि शिक्षक पुराणपुरुष भगवान नारायण की स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान की शरण में गया। भगवान श्रीकृष्ण के उदर में सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझ से कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एड़ियों की चोट से उसके छत्र के समान फण छिन्न-भिन्न हो गये। अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान की शरण में आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भय के मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केश की चोटियाँ भी बिखर रही थीं। उस समय उन साध्वी नागपत्नियों के चित्त में बड़ी घबराहट थी। अपने बालकों को आगे करके वे पृथ्वी पर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण को शरणागतवत्सल जानकर अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की।

नागपत्नियों ने कहा- "प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही है। आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है। क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं। अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है, तभी तो आप इसके ऊपर संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है। भगवन! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरणकमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मीजी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी।

प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते। स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरणरज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या-मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान के चरणों की ठोकरों से कालिय नाग के फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया। धीरे-धीरे कालिय नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला- "नाथ! हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले-बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं। विश्वविधाता! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है। भगवन! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं। हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से-जैसा ठीक समझें-कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "कालिय नाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना के जल का उपभोग करें। जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञा का स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपों से कभी भय न हो। मैंने इस कालियदह में क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जल से देवता और पितरों का तर्पण करेगा एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा, वह सब पापों से मुक्त हो जायगा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "भगवान श्रीकृष्ण की एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की। उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलों की माला से जगत के स्वामी गरुडध्वज भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 16, श्लोक 1-38 तथा 54-67

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः