काम हमारा पर न जगत से, बनें लोक में हम अनजान।
भूल जायँ सब जग के प्राणी, हम भी भूलें नाम-निशान॥
हो अनन्य अति शुद्ध प्रेममय पल-पल वर्धनशील अमान।
मधुर नित्य-सम्बन्ध उन्हीं से, वे नित पास रहें भगवान॥
हम-वे दो ही रहें, नित्य नव बढ़ता रहे अतुल उत्साह।
दोनों के जीवन में अविरत प्रेम-सुधा का बहे प्रवाह॥
एक-दूसरे को ही जानें, अन्य किसी की रहे न चाह।
जग के मान-अमान, स्तवन-निन्दा की रहे न कुछ परवाह॥
यही एक है परम साधना, यही एक है मन की साध।
पूरी यह हो रही, रहेगी होती सदा अनन्य अबाध॥
मिले सदा रहते दोनों हम रम्य निकुञ्जज निभृत निर्बाध।
उछल रहा एकाकी यह प्रेमार्णव अमित, अपार, अगाध॥