कहूँ सकुच सरन आए की होत जु निपट निकाज।
जद्यपि बुधि-दल विभव बिहूनौ, बहत कृपा करि लाज।
तृन जड़, नलिन, बहत बपु राखै, निज कर गहै जु जाइ।
कैसैं कूल-मूल आस्रित कौ तजै आपु अकुलाइ ?
तुम प्रभु अजित, अनादि, लोक-पति, हौं अजान, मतिहीन।
कछुव न होत निकट उत लागत, मगन होत इत दीन।
परिहस-सूल प्रबल निसि-वासर, तातैं यह कहि आवत।
सूरदास गोपाल सरनगत भऐं न को गति पावत।।181।।