कहाँ गये तुम, कहाँ छिपे -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग वसंत - ताल कहरवा


’कहाँ गये तुम, कहाँ छिपे ? हे नाथ ! रमण ! जीवन-‌आधार !’
विरह-प्रेम-वैचित्त्य-विकल राधा कर उठी करुण चीत्कार॥
विषम विरह-दावानलसे हो रहा दग्ध यह दीन शरीर।
प्राण-पखेरू उड़ा चाहता, त्याग इसे, हो परम अधीर॥
यद्यपि मैं अतिशय अयोग्य हूँ, सहज मलिन, गुण-रूप-विहीन।
मान बढ़ाकर तुमने मेरा, मुझे कर दिया धृष्ट, अदीन॥
लगी मानने तुहें प्राणवल्लभ, मैं मनमें कर अभिमान।
लगा, तुहें मिलता होगा मुझसे कुछ सुख विशेष, रस-खान !॥
परमानन्द-सुधार्णव तुम हो नित्य, अनन्त, अगाध, अपार।
क्या आनन्द तुहें दे सकती गुण-दरिद्र मैं, दोषागार॥
तो भी तुम मुझसे मिलते हो, हृदय लगाते, देते स्नेह।
बरसाते रहते तुम संतत मुझपर प्रेम-सुधा-रस-मेह॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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