गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र-बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
कोई कोई तो यहाँ तक कहते है कि अर्जुन की रणभूमि पर गीता का ब्रह्म ज्ञान बतलाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; वेदान्त विषय का यह उत्तम ग्रंथ पीछे से महाभारत में जोड़ दिया गया होगा। यह नहीं कि बहिरंग-परीक्षा की ये सब बातें सर्वथा निरर्थक हों। उदाहरणार्थ, ऊपर कही गई फूल की पँखुरियों तथा मधु के छत्ते की बात को ही लीजिये। वनस्पतियों के वर्गीकरण के समय फूलों की पँखुरियों का भी विचार अवश्य करना पड़ता है इसी तरह गणित की सहायता से यह सिद्ध किया गया यतीना चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोतम। [1] है कि, मधुमक्खियों के छत्ते में जो छेद होते हैं उनका आकार ऐसा होता है कि मधु-रस का धनफल तो कम होने नहीं पाता और बाहर के आवरण का पृष्ठफल बहुत कम हो जाता है जिससे मोम की पैदायश घट जाती है। अब्धिर्लेघित एव वानरभटैः किं त्वस्य गंभीरताम्। अर्थात, समुद्र की अगाध गहराई जानने की यदि इच्छा हो तो किससे पूछा जाये? इसमें संदेह नहीं कि राम रावण युद्ध के समय सैकडों वानर वीर धड़ाधड़ समुद्र के ऊपर से कूदते हुए लंका में चले गये थे; परन्तु उनमें से कितनों को समुद्र की गहराई का ज्ञान है ? समुद्र-मंथन के समय देवताओं ने मंथनदंड बना कर जिस बड़े भारी पर्वत को समुद्र के नीचे छोड़ दिया था और जो सचमुच समुद्र के नीचे पाताल तक पहुँच गया था, वही मंदराचल पर्वत समुद्र की गहराई को जान सकता है। मुरारी कवि के इस न्यायानुसार, गीता के रहस्य को जानने के लिये, अब हमें उन पंडितों और आचार्यों के ग्रंथों की ओर ध्यान देना चाहिये जिन्होंने गीता-सागर का मंथन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आजकल एक सप्तश्लोक की गीता प्रकाशित हुई है, उसमें केवल यही सात श्लोक हैः–
- ऊं इत्येकाक्षरं ब्रह्मा इ.(गी. 8.13)
- स्थाने हृषिकेश तव प्रकीर्त्या इ. (गी. 11.36)
- सर्वतः पाणिपादं तत् इ.(गी. 13.13)
- कवि पुराणमनुषा सितारं इ.(गी.8.9)
- ऊर्ध्वमूलमधः शाखं इ.( गी.15.1)
- सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्ट इ. (गी. 15.15)
- मन्मना भव मद्भक्तो इ. (गी. 18.65) इसी तरह और भी अनेक संक्षिप्त गीताएं बनी है।
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