गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र-बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
ग्रंथ को किसने और कब बनाया, उसकी भाषा सरस है या नीरस, काव्य-दृष्टि से उसमें माधुर्य और प्रसाद गुण हैं या नहीं; शब्दों की रचना में व्याकरण का ध्यान दिया गया है या उस ग्रंथ में अनेक आर्ष प्रयोग हैं, उसमें किन किन मतों, स्थलों और व्यक्तियों का उल्लेख है- इन बातों से ग्रंथ के काल-निर्णय और तत्कालीन समाज-स्थिति का कुछ पता चलता है या नहीं; ग्रंथ के विचार स्वतंत्र हैं अथवा चुराये हुए है, यदि उसमें दूसरों के विचार भरे हैं तो वे कौन से हैं और कहाँ से लिये गये हैं इत्यादि बातों के विवेचन को ‘बहिरंग-परीक्षा’ कहते हैं। जिन प्राचीन पंडितों ने गीता पर टीका और भाष्य लिखा है उन्होंने उक्त बाहरी बातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया। इसका कारण यही है कि वे लोग भगवद्गीता सरीखे अलौकिक ग्रंथ की परीक्षा करते समय उक्त बाहरी बातों पर ध्यान देने को ऐसा ही समझते थे। जैसा कि कोई मनुष्य एकआध उत्तम सुगंध युक्त फूल को पा कर उसके रंग, सौंदर्य, सुबास आदि के विषय में कुछ भी विचार न करे और केवल उसकी पंखुरिया गिनता रहे; अथवा जैसे कोई मनुष्य मधुमक्खी का मधुयुक्त छत्ता पा कर केवल छिद्रों को गिनने में ही समय नष्ट कर दे! परन्तु अब पश्चिमी विद्वानों के अनुकरण से हमारे आधुनिक विद्वान लोग गीता की बाह्य-परीक्षा भी बहुत कुछ करने लगे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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