गीता रहस्य -तिलक पृ. 6

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र-बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
पहला प्रकरण

ग्रंथ को किसने और कब बनाया, उसकी भाषा सरस है या नीरस, काव्य-दृष्टि से उसमें माधुर्य और प्रसाद गुण हैं या नहीं; शब्दों की रचना में व्याकरण का ध्यान दिया गया है या उस ग्रंथ में अनेक आर्ष प्रयोग हैं, उसमें किन किन मतों, स्थलों और व्यक्तियों का उल्लेख है- इन बातों से ग्रंथ के काल-निर्णय और तत्कालीन समाज-स्थिति का कुछ पता चलता है या नहीं; ग्रंथ के विचार स्वतंत्र हैं अथवा चुराये हुए है, यदि उसमें दूसरों के विचार भरे हैं तो वे कौन से हैं और कहाँ से लिये गये हैं इत्यादि बातों के विवेचन को ‘बहिरंग-परीक्षा’ कहते हैं। जिन प्राचीन पंडितों ने गीता पर टीका और भाष्य लिखा है उन्होंने उक्त बाहरी बातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया। इसका कारण यही है कि वे लोग भगवद्गीता सरीखे अलौकिक ग्रंथ की परीक्षा करते समय उक्त बाहरी बातों पर ध्यान देने को ऐसा ही समझते थे। जैसा कि कोई मनुष्य एकआध उत्तम सुगंध युक्त फूल को पा कर उसके रंग, सौंदर्य, सुबास आदि के विषय में कुछ भी विचार न करे और केवल उसकी पंखुरिया गिनता रहे; अथवा जैसे कोई मनुष्य मधुमक्खी का मधुयुक्त छत्ता पा कर केवल छिद्रों को गिनने में ही समय नष्ट कर दे! परन्तु अब पश्चिमी विद्वानों के अनुकरण से हमारे आधुनिक विद्वान लोग गीता की बाह्य-परीक्षा भी बहुत कुछ करने लगे हैं।
गीता के आर्ष प्रयोगों को देख कर एक ने यह निश्चित किया है कि यह ग्रंथ ईसा से कई शतक पहले ही बन गया होगा। इससे यह शंका, बिल्कुल ही निर्मूल हो जाती है, कि गीता का भक्ति मार्ग उस ईसाई धर्म से लिया गया होगा कि जो गीता से बहुत पीछे प्रचलित हुआ है। गीता के सोलहवें अध्याय में जिस नास्तिक मत का उल्लेख है उसे बौद्ध मत समझ कर दूसरे ने गीता का रचना-काल बुद्ध के बाद माना है। तीसरे विद्वान का कथन है कि तेरहवें अध्याय में ‘ब्रह्मसूत्रपदैश्रैव’ श्‍लोक में ब्रह्मसूत्र का उल्लेख होने के कारण गीता ब्रह्मसूत्र के बाद बनी होगी। इसके विरुद्ध कई लोग यह भी कहते हैं कि ब्रह्मसूत्र में अनेक स्थानों पर गीता ही का आधार लिया गया है जिससे गीता का उसके बाद बनना सिद्ध नहीं होता।
कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि युद्ध में रणभूमि पर अर्जुन को सात सौ श्लोक की गीता सुनाने का समय मिलना संभव नहीं है। हाँ, यह संभव है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को लड़ाई की जल्दी में दस-बीस श्लोक या उनका भावार्थ सुना दिया हो और उन्हीं श्‍लोकों के विस्तार को संजय ने धृतराष्ट्र से, व्यास ने शुक से, वैशम्पायन ने जनमेजय से और सूत ने शौनक से कहा हो; अथवा महाभारतकार ने भी उसको विस्तृत रीति से लिख दिया है। गीता की रचना के संबंध में मन की ऐसी प्रवृति होने पर, गीता सागर में डुबकी लगा कर, किसी ने सात, किसी ने अठ्ठाईस, किसी ने छत्तीस और किसी ने सौ मूल श्‍लोक गीता के खोज निकाले हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः