गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
यदि यह सत्य मान लें कि “नित्यमेव सुखं स्वर्गे’’ तो इसी के आगे[1]यह भी कहा है कि “सुखं दुःखमिहोभयम्’’ अर्थात् इस संसार में सुख और दुःख दोनों मिश्रित हैं। इसी के अनुसार समर्थ श्रीरामदास स्वामी ने भी कहा है “हे विचारवान मनुष्य! इस बात को अच्छी तरह सोच कर देख ले, कि इस संसार में पूर्ण सुखी कौन है।’’ इसके सिवा द्रौपदी ने सत्यभामा को यह उपदेश दिया है कि- सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि । अर्थात’’ सुख से सुख कभी नहीं मिलता; साध्वी स्त्री को सुख-प्राप्ति के लिये दुःख या कष्ट सहना पड़ता है’’ [2]; इससे कहना पड़ेगा कि यह उपदेश इस संसार के अनुभव के अनुसार सत्य है। देखिये, यदि जामुन किसी के ओंठ पर भी धर दिया जाय, तो भी उसको खाने के लिये पहले मुँह खोलना पड़ता है; और यदि मुँह में चला जाये तो उसे खाने का कष्ट सहना ही पड़ता है! सारांश, यह बात सिद्ध है कि दुःख के बाद सुख पाने वाले मनुष्य के सुखास्वादन में बहुत भारी अंतर है। इसका कारण यह है कि हमेशा सुख का उपभोग करते रहने से सुख का अनुभव करने वाली इंद्रियां भी शिथिल हो जाती हैं। कहा भी है किः- प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते । काष्ठान्यपि हि जीर्यन्ते दरिद्राणां च सर्वश: ।। अर्थात “श्रीमानों में सुस्वादु अन्न को सेवन करने की भी शक्ति नहीं रहती, परंतु गरीब लोग लकड़ी को भी पचा जाते हैं’’ [3]। अतएव जबकि हम को इस संसार के ही व्यवहारों का विचार करना है तब कहना पड़ता है कि इस प्रश्न को अधिक हल करते रहने में कोई लाभ नहीं कि बिना दुःख पाये हमेशा सुख का अनुभव किया जा सकता है या नहीं? इस संसार में यही क्रम सदा से देख पड़ रहा है कि, “सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम’’[4] अर्थात सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख मिला ही करता है। और महाकवि कालिदास ने भी मेघदूत [5] में वर्णन किया है- कस्यैकांतं सुखमुपनतं दुःखमेकांततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण । “किसी की भी स्थिति हमेशा सुखमय या हमेशा दुःखमय नहीं होती। सुख-दुःख की दशा, पहिये के समान ऊपर और नीचे की ओर, हमेशा बदलती रहती है।’’ अब चाहे यह दुःख हमारे सुख के मिठास को अधिक बढ़ाने के लिये उत्पन्न हुआ हो और चाहे इस प्रकृति के संसार में उसका और भी कुछ उपयोग होता हो, उक्त अनुभव-सिद्ध क्रम के बारे में मतभेद हो नहीं सकता। हां, यह बात कदाचित असम्भव न होगी कि कोई मनुष्य हमेशा ही विषय- सुख का उपभोग किया करे और उससे उसका जी भी न ऊबे; परंतु इस कर्मभूमि (मृत्युलोक या संसार) में यह बात अवश्य असम्भव है कि दुःख का बिलकुल नाश हो जाय और हमेशा सुख ही सुख का अनुभव मिलता रहे। यदि यह बात सिद्ध है कि संसार केवल सुखमय नहीं है, किन्तु वह सुख-दुःखात्मक है; तो अब तीसरा प्रश्न आप ही आप मन में पैदा होता है, कि संसार में सुख अधिक है या दुःख? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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