गीता रहस्य -तिलक पृ. 90

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

इसी तरह मान लो कि राह चलते चलते हम किसी रमणीय बाग में जा पहुँचे, और वहाँ किसी पक्षी का मधुर गान एकाएक सुन पड़ा, अथवा किसी मन्दिर में भगवान् की मनोहर छवि देख पड़ी; तब ऐसी अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता कि उस गान के सुनने से या उस छवि के दर्शन से होने वाले सुख की हम पहले ही से इच्छा किये बैठे थे। सच बात तो यही है कि सुख की इच्छा किये बिना ही, उस समय, हमें सुख मिला। इन उदाहरणों पर ध्यान देने से यह अवश्य ही मानना पड़ेगा कि संन्यास- मार्गवाली सुख की उक्तव्याख्या ठीक नहीं है और यह भी मानना पड़ेगा कि इन्द्रियों में भली-बुरी वस्तुओं का उपभोग करने की स्वाभाविक शक्ति होने के कारण जब वे अपना अपना व्यापार करती रहती हैं और जब कभी उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल विषय की प्राप्ति हो जाती है तब, पहले तृष्णा या इच्छा के न रहने पर भी, हमें सुख-दुःख का अनुभव हुआ करता है। इसी बात पर ध्यान रख कर गीता [1] में कहा गया है कि “मात्रास्पर्श’’ से शीत, उष्ण आदि का अनुभव होने पर सुख-दुःख हुआ करता है। सृष्टि के बाह्य पदार्थो को ‘मात्रा’ कहते है। गीता के उक्त पदों का अर्थ यह है कि, जब इन बाह्य पदार्थों का इन्द्रियों से स्पर्श अर्थात संयोग होता है तब सुख या दुःख की वेदना उत्पन्न होती है।

यही कर्मयोगशास्त्र का भी सिद्धान्त है। कान को कड़ी आवाज अप्रिय क्यों मालूम होती है जिह्वा को मधुर रस प्रिय क्यों लगता है? आंखों को पूर्ण चन्द्र का प्रकाश आल्हादकारक क्यों प्रतीत होता है? इत्यादि बातों का कारण कोई भी नहीं बतला सकता। हम लोग केवल इतना ही जानते हैं कि जीभ को मधुर रस मिलने से वह सन्तुष्ट हो जाती है। इससे प्रगट होता है कि आधिभौतिक सुख का स्वरूप केवल इन्द्रियों के अधीन है और इसलिये कभी कभी इन इन्द्रियों के व्यापारों को जारी रखने में ही सुख मालूम होता है- चाहे इसका परिणाम भविष्य में कुछ भी हो। उदाहरणार्थ, कभी कभी ऐसा होता है कि मन में कुछ विचार आने से उस विचार के सूचक शब्द आप ही मुंह से बाहर निकल पड़ते हैं। ये शब्द कुछ इस इरादे से बाहर नहीं निकाले जाते कि इनको कोई जान ले; बल्कि कभी कभी तो इन स्वाभाविक व्यापारों से हमारे मन की गुप्त बात भी प्रगट हो जाया करती है, जिससे हमको उल्टा नुकसान हो सकता है। छोटे बच्चे जब चलना सीखते हैं तब वे दिन भर यहाँ वहाँ यों ही चलते फिरते रहते है। इसका कारण यही है कि उन्हें चलते रहने की क्रिया में ही उस समय आनन्द मालूम होता है। इसलिये सब सुखों को दुःखाभावरूप ही न कह कर यही कहा गया है कि “इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ’’ [2]अर्थात इन्द्रियों में और उनके शब्द स्पर्श आदि विषयों में जो राग (प्रेम) और द्वेष हैं, वे दोनों पहले ही से ‘व्यवस्थित’ अर्थात् स्वतंत्र-सिद्ध हैं। और अब हमे यही जानना है कि इन्द्रियों के ये व्यापार आत्मा के लिये कल्याणदायक कैसे होंगे या कर लिये जा सकेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.14
  2. गी. 3.34

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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