गीता रहस्य -तिलक पृ. 8

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र-बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

यह बात गीता के चौथे अध्याय के आरंम्भ[1] में दी गई है। महाभारत, शांतिपर्व के अंत में नारायणीय अथवा भागवत धर्म का विस्तृत निरूपण है जिसमें, ब्रह्मादेव के अनेक जन्मों में अर्थात कल्पान्तरों में, भागवत धर्म की परंपरा का वर्णन किया गया है और अंत में यह कहा गया हैः-

त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान् मनवे ददौ।
मनुश्‍व लोकभृत्यर्थ सुतापेक्ष्वाकवे ददौ।
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्‍याप्य लोकानवस्थितः॥

अर्थात ब्रह्मादेव के वर्तमान जन्म के त्रेतायुग में इस भागवत धर्म ने विवस्वान मनु-इक्ष्वाकु की परंपरा से विस्तार पाया है। [2] यह परंपरा गीता में दी हुई उक्त परंपरा से मिलती है। [3] दो भिन्न धर्म की परंपरा का एक होना संभव नहीं हैं, इसलिये परंपराओं की एकता के कारण यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि गीताधर्म और भागवतधर्म, ये दोनों एक ही हैं इन धर्मों की यह एकता केवल अनुमान ही पर अवलंबित नहीं है। नारायणीय या भागवत धर्म के निरूपण में वैशंपायन जनमेजय से कहते हैः-

 एवमेष महान् धर्मः स ते पूर्व नृपोतम।
कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः॥

अर्थात हे नृप श्रेष्ठ जनमेजय! यही उत्‍तम भागवत धर्म, विधि युक्त और संक्षिप्त रीति से हरि गीता अर्थात भगवद्गीता में, तुझे पहले ही बतलाया गया है [4]। इसके बाद एक अध्याय छोड़ कर दूसरे अध्याय (महाभा. शां. 348.8) में नारायणीय धर्म के संबंध में फिर भी स्पष्ट रीति से कहा गया है किः-

 समुपोढेष्वनीकेषु कुरुपांडवयोर्मृधे।
अर्जुने विमनस्के च गीता भगवता स्वयम्॥

अर्थात कौरव-पांडव युद्ध के समय जब अर्जुन उद्विग्न हो गया था तब स्वयं भगवान ने उसे यह उपदेश दिया था। इससे यह स्पष्ट है कि ‘हरिगीता’ से भगवद्गीता ही का मतलब है। गुरुपरंपरा की एकता के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जिस भागवत धर्म या नारायण धर्म के विषय में दो बार कहा गया है कि वही गीता का प्रतिपाद्य विषय है, उसी को ‘सात्वत’ या ‘एकांतिक’ धर्म ही कहा है। इसका विवेचन करते समय[5] दो लक्षण कहे गये हैः-

 नारायणपरो धर्मः पुनरावृतिदुर्लभः ।
प्रवृतिलक्षणश्रैव धर्मों नारायणात्मकः॥

अर्थात यह नारायणीय धर्म प्रवृति मार्ग का हो कर भी पुनर्जन्म का टालने वाला अर्थात पूर्ण मोक्ष का दाता है। फिर इस बात का वर्णन किया गया है कि यह धर्म प्रवृति मार्ग का कैसे है। प्रवृति का यह अर्थ प्रसिद्ध ही है कि संन्यास ने लेकर मरणपर्यन्त चातुर्वण्य विहित निष्काम कर्म ही करता रहे। इसलिये यह स्पष्ट है कि गीता में जो उपदेश अर्जुन को किया गया है वह भागवत धर्म का है और उसको महाभारतकार प्रवृति- विषय का ही मानते है, क्योंकि उपर्युक्त धर्म भी प्रवृति विषय का है। साथ साथ यदि ऐसा कहा जाये कि गीता में केवल प्रवृति मार्ग का ही भागवत धर्म है तो यह भी ठीक नहीं,क्योंकि वैशम्पायन ने जनमेजय से फिर भी कहा है [6]

 यतीना चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोतम ।
कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः ॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1-3
  2. मभा. शां. 348.51,52
  3. गीता दृ 4.1 पर हमारी टीका देखो
  4. महाभा. शां. 346.10
  5. शां. 347.80,81
  6. (मभा. शां. 348.53): - गी.र. 2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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