गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
यदि किसी गरीब ने एक-आध धर्म-कार्य के लिये चार पैसे दिये और किसी अमीर ने उसी के लिये सौ रुपये दिये तो लोगों में दोनों की नैतिक योग्यता एक ही समझी जाती है। परन्तु यदि केवल “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ किसमें है, इसी बाहरी साधन द्वारा विचार किया जाय तो ये दोनों दान नैतिक दृष्टि से समान योग्यता के नहीं कहे जा सकते।“अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ इस आधिभौतिक नीति-तत्त्व में जो बहुत बड़ा दोष है, वह यही है कि इसमें कर्ता के मन के हेतु या भाव का कुछ भी विचार नहीं किया जाता; और यदि अन्तस्थ हेतु पर ध्यान दें तो इस प्रतिज्ञा से विरोध खड़ाहो जाता है कि, अधिकांश लोगों का अधिक सुख ही नीतिमत्ता की एकमात्र कसौटी है। कायदा-कानून बनाने वाली सभा के बनाये हुए कायदों या नियमों की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करते समय, यह जानने की कुछ आवश्यकता ही नहीं कि सभासदों के अन्तःकरणों में कैसा भाव था- हम लोगों को अपना निर्णय केवल इस बाहरी विचार के आधार पर कर लेना चाहिये कि इनमें कायदों से अधिकों को अधिक सुख हो सकेगा या नहीं। परन्तु, उक्त उदाहरण से यह साफ साफ ध्यान में आ सकता है कि, सभी स्थानों में यह न्याय उपयुक्त हो नहीं सकता।हमारा यह कहना नहीं है कि “अधिकांश लोगों का अधिक सुख या हित’’ वाला तत्त्व बिलकुल ही निरूपयोगी है। केवल बाह्य परिणामों का विचार करने के लिये इससे बढ़कर दूसरा तत्त्व कहीं नहीं मिलेगा। परन्तु, हमारा यह कथन है कि, जब नीति की दृष्टि से किसी बात को न्याय अथवा अन्याय कहना हो तब केवल बाह्य परिणामों को ही देखने से काम नहीं चल सकता, उसके लिये और भी कई बातों पर विचार करना पड़ता है, अतएव नीतिमत्ता का निर्णय करने के लिये पूर्णतया इसी तत्त्व पर अवलंबित नहीं रह सकते, इसलिये इससे भी अधिक निश्चत और निर्दोष तत्त्व को खोज निकालना आवश्यक है। गीता में जो यह कहा गया है कि“कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है ’’ [1] उसका भी यही अभिप्राय है। यदि केवल बाह्य कर्मो पर ध्यान दें तो वे बहुधा भ्रामक होते हैं। “स्नान-संध्या, तिलक-माला’’ इत्यादि बाह्य कर्मों के होते हुए भी “पेट मे क्रोधाग्रि’’ का भड़कते रहना असम्भव नहीं है। परन्तु यदि हृदय का भाव शुद्ध हो तो बाह्य कर्मों का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता है; सुदामा के “मुठी भर चावल”’ सरीखे अत्यंत अल्प बाह्यकर्म की धार्मिक और नैतिक योग्यता, अधिकांश लोगों को अधिक सुख देने वाले हजारों मन अनाज के बराबर ही, समझी जाती है। इसी लिये प्रसिद्ध जर्मन तत्त्वज्ञानी कांट[2]ने कर्म के बाह्य और दृश्य परिणामों के तारतम्य-विचार को गौण माना है एवं नीतिशास्त्र के अपने विवेचन का आरम्भकर्ता की शुद्ध बुद्धि (शुद्ध भाव) ही से किया है। यह नहीं समझना चाहिये कि आधिभौतिक सुख-वाद की यह न्यूनता बड़े बडे़ आधिभौतिक- वादियों के ध्यान में नहीं आई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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