गीता रहस्य -तिलक पृ. 7

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र-बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

कोई कोई तो यहाँ तक कहते है कि अर्जुन की रणभूमि पर गीता का ब्रह्म ज्ञान बतलाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; वेदान्त विषय का यह उत्तम ग्रंथ पीछे से महाभारत में जोड़ दिया गया होगा। यह नहीं कि बहिरंग-परीक्षा की ये सब बातें सर्वथा निरर्थक हों। उदाहरणार्थ, ऊपर कही गई फूल की पँखुरियों तथा मधु के छत्ते की बात को ही लीजिये। वनस्पतियों के वर्गीकरण के समय फूलों की पँखुरियों का भी विचार अवश्य करना पड़ता है इसी तरह गणित की सहायता से यह सिद्ध किया गया यतीना चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोतम। [1] है कि, मधुमक्खियों के छत्ते में जो छेद होते हैं उनका आकार ऐसा होता है कि मधु-रस का धनफल तो कम होने नहीं पाता और बाहर के आवरण का पृष्ठफल बहुत कम हो जाता है जिससे मोम की पैदायश घट जाती है।
इसी प्रकार के उपयोगों पर दृष्टि देते हुए हमने भी गीता की बहिरंग-परीक्षा की है और उसके कुछ महत्त्व के सिद्धांतों का विचार इस ग्रंथ के अंत में, परिशिष्‍ट में किया है। परन्तु जिनको ग्रंथ का रहस्य ही जानना है उनके लिये बहिरंग-परीक्षा के झगडे़ में पड़ना अनावश्‍यक है। वाग्देवी के रहस्य को जानने वालों तथा उसकी ऊपरी और बाहरी बातों के जिज्ञासुओं में जो भेद है उसे मुरारी कवि ने बड़ी ही सरसता के साथ दर्शाया है -

अब्धिर्लेघित एव वानरभटैः किं त्वस्य गंभीरताम्।
आपातालनिमग्नपीवरतनुर्जानाति मंथाचलः ॥

अर्थात, समुद्र की अगाध गहराई जानने की यदि इच्छा हो तो किससे पूछा जाये? इसमें संदेह नहीं कि राम रावण युद्ध के समय सैकडों वानर वीर धड़ाधड़ समुद्र के ऊपर से कूदते हुए लंका में चले गये थे; परन्तु उनमें से कितनों को समुद्र की गहराई का ज्ञान है ? समुद्र-मंथन के समय देवताओं ने मंथनदंड बना कर जिस बड़े भारी पर्वत को समुद्र के नीचे छोड़ दिया था और जो सचमुच समुद्र के नीचे पाताल तक पहुँच गया था, वही मंदराचल पर्वत समुद्र की गहराई को जान सकता है। मुरारी कवि के इस न्यायानुसार, गीता के रहस्य को जानने के लिये, अब हमें उन पंडितों और आचार्यों के ग्रंथों की ओर ध्यान देना चाहिये जिन्होंने गीता-सागर का मंथन किया है।
इन पंडितों में महाभारत के कर्ता ही अग्रगण्य हैं। अधिक क्या कहें, आजकल जो गीता प्रसिद्ध है उसके यही एक प्रकार से कर्ता भी कहे जा सकते हैं। इसलिये प्रथम उन्हीं के मतानुसार, संक्षेप में, गीता का तात्पर्य दिया जायेगा। ‘भगवद्गीता’ अर्थात 'भगवान से गाया गया उपनिषद’ इस नाम ही से, बोध होता है कि गीता में अर्जुन को जो उपदेश किया गया है वह प्रधान रूप से भागवत-धर्म भगवान के चलाये हुए धर्म के विषय में होगा। क्योंकि श्रीकृष्ण को ‘श्रीभगवान’ का नाम प्रायः भागवत धर्म में ही दिया जाता है। यह उपदेश कुछ नया नहीं है। पूर्व काल में यही उपदेश भगवान ने विवस्वान् को, विवस्वान् ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आजकल एक सप्तश्‍लोक की गीता प्रकाशित हुई है, उसमें केवल यही सात श्‍लोक हैः–
    1. ऊं इत्येकाक्षरं ब्रह्मा इ.(गी. 8.13)
    2. स्थाने हृषिकेश तव प्रकीर्त्‍या इ. (गी. 11.36)
    3. सर्वतः पाणिपादं तत् इ.(गी. 13.13)
    4. कवि पुराणमनुषा सितारं इ.(गी.8.9)
    5. ऊर्ध्‍वमूलमधः शाखं इ.( गी.15.1)
    6. सर्वस्‍य चाहं हृदि संनिविष्ट इ. (गी. 15.15)
    7. मन्मना भव मद्भक्तो इ. (गी. 18.65) इसी तरह और भी अनेक संक्षिप्त गीताएं बनी है।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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