गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
यदि इन लोगों में पारलौकिक दृष्टि नहीं है तो न सही। ये मनुष्य के कर्तव्य के विषय में यही कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी ऐहिक दृष्टि ही को, जितनी बन सके उतनी, व्यापक बना कर समूचे जगत के कल्याण के लिये प्रयत्न करना चाहिये। इस तरह अंतःकरण से पूर्ण उत्साह के साथ उपदेश करने वाले कोंट, मिल, स्पेन्सर आदि सात्त्विक वृति के अनेक पंडित इस पंथ में है; और उनके ग्रंथ अनेक प्रकार के उदात्त और प्रगल्भ विचारों से भरे रहने के कारण सब लोगों के पढ़ने योग्य हैं। यद्यपि कर्मयोगशास्त्र के पंथ भिन्न हैं, तथापि जब तक “संसार का कल्याण’’ यह बाहरी उद्देश्य छूट नहीं गया है तब तक भिन्न रीति से नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करने वाले किसी मार्ग या पंथ का उपहास करना अच्छी बात नहीं है। अस्तुः आधिभौतिकवादियों में इस विषय पर मतभेद हैं कि, नैतिक कर्म-अकर्म का निर्णय करने के लिये जिस आधिभौतिक बाह्य सुख का विचार करना है अनेक व्यक्तियों का। अब संक्षेप में इस बात का विचार किया जायगा कि नये और पुराने सभी आधिभौतिकवादियों के मुख्यतः कितने वर्ग हो सकते हैं, और उनके ये पंथ कहाँ तक उचित अथवा निर्दोष हैं? इनमें से पहला वर्ग केवल स्वार्थ- सुखवादियों का है। इस पंथ का कहना है कि परलोक और परोपकार सब झूठ हैं, आध्यात्मिक धर्मशास्त्रों को चालाक लोगों ने अपना पेट भरने के लिये लिखा है, इस दुनिया में स्वार्थ ही सत्य है और जिस उपाय से स्वार्थ-सिद्धि हो सके अथवा जिसके द्वारा स्वयं अपने आधिभौतिक सुख की वृद्धि हो उसी को न्याय, प्रशस्त या श्रेयस्कर समझना चाहिये। हमारे हिंदुस्थान में, बहुत पुराने समय में, चार्वाक ने बड़े उत्साह से इस मत का प्रतिपादन किया था; और रामायण में जाबालि ने अयोध्याकांड के अंत में श्रीरामचंद्रजी को जो कुटिल उपदेश दिया है वह, तथा महाभारत में वर्णित कणिक-नीति [1] भी इसी मार्ग की है। चार्वाक का मत है, कि जब पंचमहाभूत एकत्र होते हैं तब उनके मिलाप से आत्मा नाम का एक गुण उत्पन्न हो जाता है और देह के जलने पर उसके साथ साथ वह भी जल जाता है; इसलिये विद्वानों का कर्तव्य है कि, आत्मविचार के झंझट में न पड़कर, जब तक यह शरीर जीवित अवस्था में है तब तक “ऋण ले कर भी त्योहार मनावें’’ - ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्- क्योंकि मरने पर कुछ नहीं है। चार्वाक हिंदुस्थान में पैदा हुआ था इसलिये उसने घृत ही से अपनी तृष्णा बुझा ली; नहीं तो उक्त सूत्र का रूपांतर “ऋणं कृत्वा सुरां पिबेत्’’ हो गया होता! कहाँ का धर्म और कहाँ का परोपकार? इस संसार में जितने पदार्थ परमेश्वर ने,- शिव, शिव! भूल हो गई। परमेश्वर आया कहाँ से- इस संसार में पदार्थ हैं वे सब मेरे ही उपभोग के लिये हैं। उनका दूसरा कोई भी उपयोग नहीं दिखाई पड़ता, अर्थात है ही नहीं। मैं मरा कि दुनिया डूबी। इसलिये जब तक मैं जीता हूँ तब तक, आज यह तो कल वह, इस प्रकार सब कुछ, अपने अधीन करके अपनी सारी काम-वासनाओं को तृप्त कर लूंगा। यदि मैं तप करूंगा अथवा कुछ दान दूंगा तो वह सब मैं अपने महत्त्व को बढ़ाने ही के लिये करूंगा; और यदि मैं राजसूर्य या अश्वमेघ यज्ञ करूंगा तो उसे मैं यही प्रगट करने के लिये करूंगा कि मेरी सत्ता या अधिकार सर्वत्र अबाधित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महा. आ.142
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