गीता रहस्य -तिलक पृ. 68

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

किसी कर्म के भले या बुरे होने का निर्णय उस कर्म के बाह्य परिणामों से, जो प्रत्यक्ष देख पड़ते है, किया जाना चाहिये; और ऐसा ही किया भी जाता है। क्योंकि, मनुष्य जो जो कर्म करता है वह सब सुख के लिये या दुःख- निवारणार्थ ही किया करते हैं। और तो क्या ‘सब मनुष्यों का सुख’ ही ऐहिक परमोदेश है; और यदि सब कर्मों का अंतिम दृश्‍य फल इस प्रकार निश्चित है तो नीति- निर्णय का सच्चा मार्ग यही होना चाहिये कि, सुख-प्राप्ति या दुःख-निवारण के तारतम्य अर्थात लघुता और गुरुता को देख कर सब कर्मों की नीतिमता निश्चित की जावे। जबकि व्यवहार में किसी वस्तु का भला-बुरापन केवल बाहरी उपयोग ही से निश्चित किया जाता है, जैसे जो गाय छोटे सींगों वाली और सीधी होकर भी अधिक दूध देती हैं वही अच्छी समझी जाती है, तब इसी प्रकार जिस कर्म से सुख-प्राप्ति या दुःख-निवारणात्मक बाह्य फल अधिक हो उसी को नीति की दृष्टि से भी श्रेयस्कर समझना चाहिये।

जब हम लोगों को केवल बाह्य और दृश्‍य परिणामों की लघुता- गुरुता देख कर नीतिमता के निर्णय करने की यह सरल और शास्त्रीय कसौटी प्राप्त हो गई है, तब उसके लिये आत्म-अनात्म के गहरे विचार- सागर में चक्कर खाते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।“अर्के चेत्मधु विन्देत किमर्थ पर्वतं व्रजेत्’’[1] पास ही में यदि मधु मिल जाये तो मधुमक्खी के छत्ते की खोज के लिये जंगल में क्यों जाना चाहिये? किसी भी कर्म के केवल बाह्य फल को देख कर नीति और अनीति का निर्णय करने वाले उक्त पक्ष को हमने “आधिभौतिक सुखवाद’’ कहा है क्योंकि, नीतिमता का निर्णय करने के लिये, इस मत के अनुसार, जिन सुख-दुःखों का विचार किया जाता है वे सब प्रत्यक्ष दिखने वाले और केवल बाह्य अर्थात बाह्य पदार्थों का इंद्रियों के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होने वाले, यानि आधिभौतिक है।

और, यह पंथ भी, सब संसार का केवल आधिभौतिक दृष्टि से विचार करने वाले पंडितों से ही, चलाया गया है। इसका विस्तृत वर्णन इस ग्रंथ में करना असंभव है- भिन्न भिन्न ग्रंथकारों के मतों का सिर्फ सारांश देने के लिये ही एक स्वतंत्र ग्रंथ लिखना पड़ेगा। इसलिये, श्रीमद्वगवद्गीता के कर्मयोगशास्त्र का स्वरूप और महत्त्व पूरी तौर से ध्यान में आ जाने के लिये, नीतिशास्त्र के इस आधिभौतिक पंथ का जितना स्पष्टीकरण अत्यावश्यक है उतना ही संक्षिप्त रीति से इस प्रकरण में एकत्रित किया गया है। इससे अधिक बातें जानने के लिये पाठकों को पश्चिमी विद्वानों के मूल ग्रंथ ही पढना चाहिये। ऊपर कहा गया है कि, परलोक के विषय में, आधिभौतिकवादी उदासीन रहा करते है; परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि, इस पंथ के सब विद्वान् लोग स्वार्थसाधक, अपस्वार्थी अथवा अनीतिमान हुआ करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुछ लोग इस श्लोक में ‘अर्क’ शब्द से‘आक या मदार के पेड़’ का भी अर्थ लेते हैं। परन्तु ब्रह्मसूत्र 3.4.3 के शांकरभाष्य की टीका में आनन्दगिरी ने अर्क शब्द का अर्थ ‘समीप’ किया है। इस श्लोक का दूसरा चरण यह हैः- सिद्धस्यार्थस्य संप्राप्तों को विद्वान्यत्नमाचरेत्।’’

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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