गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
जिस मार्ग को हम बुरा समझते हैं वह बुरा क्यों है? यह अच्छापन या बुरापन किसके द्वारा या किस आधार पर ठहराया जा सकता है; अथवा इस अच्छेपन या बुरेपन का रहस्य क्या है? इत्यादि बातें जिस शास्त्र के आधार से निश्चित की जाती हैं उसको “कर्मयोगशास्त्र’’ या गीता के संक्षिप्त रूपानुसार,’’ योगशास्त्र’’ कहते हैं। ‘अच्छा’ और ‘बुरा’ दोनों साधारण शब्द हैं; इन्हीं के समान अर्थ में कभी कभी शुभ-अशुभ, हितकर-अहितकर, श्रेयस्कर-अश्रेयस्कर, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ करता है। कार्य-अकार्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, न्याय-अन्याय इत्यादि शब्दों का भी अर्थ वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करने वालों का सृष्टि रचना विषयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण “कर्मयोग’’ शास्त्र के निरूपण के पंथ भी भिन्न भिन्न हो गये हैं। किसी भी शास्त्र को लीजिये; उसके विषयों की चर्चा साधारणतः तीन प्रकार से की जाती है। (1) इस जड़ सृष्टि के पदार्थ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि वे हमारी इन्द्रियों को गोचर होते है; इसके परे उनमें और कुछ नहीं है; इस दृष्टि से उनके विषय में विचार करने की एक पद्धति है जिसे आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। उदाहणार्थ, सूर्य को देवता न मानकर केवल पांच भौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मानें; और उष्णता, प्रकाश वजन, दूरी और आकर्षण इत्यादि उसके केवल गुण धर्मों ही की परीक्षा करें; तो उसे सूर्य का आधिभौतिक विवेचन कहेंगे। दूसरा उदाहरण पेड़ का लीजिये। इसका विचार न करके, कि पेड़ के पत्ते निकलना, फूलना, फलना आदि क्रियाए किसके अंतर्गत शक्ति के द्वारा होती हैं।जब केवल बाहरी दृष्टि से विचार किया जाता है कि जमीन में बीज बोने से अंकुर फूटते हैं, तब उसे पेड़ का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। रसायन शास्त्र, पदार्थ विज्ञानशास्त्र, विद्युतशास्त्र इत्यादि आधुनिक शास्त्रों का विवेचन इसी ढंग का होता है। और तो क्या, आधिभौतिक पंडित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के दृष्य गुणों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है। सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है। सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार करना निष्फल है। (2) जब उक्त दृष्टि को छोड़ कर इस बात का विचार किया जाता है कि जड़ सृष्टि के पदार्थों के मूल में क्या है? क्या इन पदार्थों का व्यवहार केवल उनके गुण-धर्मों ही से होता है या उनके लिये किसी तत्त्व का आधार भी है; तब केवल आधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, हमको कुछ आगे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह मानते हैं कि यह पांच भौतिक (सूर्य) नामक एक देव का अधिष्ठान हैं और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले सूर्य के सब व्यापार या व्यवहार होते रहते है; तब उसको उस विषय का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हवा में, अर्थात सब पदार्थों में, अनेक देव हैं जो उन जड़ तथ अचेतन पदार्थों से भिन्न तो है, किंतु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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