गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दशक संकल्प है उनमें भी साफ साफ कह दिया है कि गीता का मुख्य प्रतिपादय विषय योगशास्त्र है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। आरंभ के दो पदों “श्रीमद्वगवद्गीतासु उपनिषत्सु” के बाद इस संकल्प में दो शब्द ब्रह्माविद्ययां योगशास्त्रे” और भी जोडे़ गये हैं। पहले दो शब्दों का अर्थ है “भगवान से गाये गये उपनिषद में” और पिछले दो शब्दों का अर्थ “ब्रह्माविद्या का योगशास्त्र अर्थात कर्मयोगशास्त्र’’ है, जो इस गीता का विषय है। ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान एक ही बात है; और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरुष के लिये दो निष्ठाएं या मार्ग खुले हुए हैं[1]। एक सांख्य अथवा संन्यास मार्ग-अर्थात वह मार्ग जिसमें, ज्ञान होने पर, कर्म करना छोड़कर विरक्त रहना पड़ता है; और दूसरा योग अथवा कर्म मार्ग- अर्थात वह मार्ग जिसमें, कर्मों का त्याग न करके, ऐसी युक्ति से नित्यकर्म करते रहना चाहिये कि जिससे मोक्ष-प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम ‘ज्ञान निष्ठा’ भी है जिसका विवेचन उपनिषदों में अनेक ऋषियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी लिखा है परन्तु ब्रह्म-विद्या के अंतर्गत कर्म योग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भगवद्गीता के सिवा अन्य ग्रंथों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है और इससे प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे प्रगट होता है कि गीता सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प के रचयिता ने इस संकल्प में ‘ब्रह्माविद्यायां योगशास्त्रे’ इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है; किंतु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपादय विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिये उक्त पदों को उस संकल्प में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि, गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही ने किया है, जो इस योग मार्ग के प्रवर्तक और सब योगों के साक्षात ईश्वर योगश्वर= योग+ईश्वर है; और लोकहित के लिये उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के ‘कर्म योगशास्त्र’ शब्द कुछ बड़े हैं; परन्तु अब हमने ‘कर्मयोगशास्त्र’ सरीखा बड़ा नाम ही इस ग्रंथ और प्रकरण को देना इसलिये पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपादय विषय के सम्बंध में कुछ भी संदेह न रह जावे। एक ही कर्म को करने के जो अनेक योग, साधन या मार्ग हैं उनमें से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कौन है? उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं; नहीं किया जा सकता, तो कौन कौन अपवाद उत्पन्न होते हैं और वे क्यों उत्पन्न होते हैं; जिस मार्ग को हमने उत्तम मान लिया है वह उत्तम क्यों है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 3.3
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