गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
शांति पर्व के अंत में, नारायणयोपाख्यान में,‘सांख्य’ और ‘योग’ शब्द तो इसी अर्थ में अनेक बार आये हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किये गये[1]। पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्धृत किये गये हैं उनसे यह स्पष्टता मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा भागवत धर्म भगवद्गीता का प्रतिपादय तथा प्रधान विषय है। इसलिये कहना पड़ता है कि ‘सांख्य’ और ‘योग’ शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ (सांख्य= निवृति; योग=प्रवृति) नारायणीय धर्म में दिया गया है वही अर्थ गीता मे भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से-“समत्वं योग उच्यते” या” योगः कर्मसु कौशलम्”- तथा उपर्युक्त “कर्मयोगेण योगिनाम्” इत्यादि गीता के वचनो से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिये, अब यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में “योग” शब्द प्रवृति मार्ग अर्थात ‘कर्म योग’ के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म ग्रंथों की कौन कहे यह ‘योग’ शब्द पाली और संस्कृत भाषाओं के बौद्धधर्म ग्रंथों में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्थ, संवत 335 के लगभग लिखे गये मिलिंदप्रश्न नामक पाली-ग्रंथ में ‘पुब्बयोगो’ (पूर्व योग) शब्द आया है और वही उसका अर्थ ‘पुब्बकम्म’ (पूर्वकर्म) किया गया है[2]। इसी तरह अश्वघोष कवि कृत- जो शालिवाहन शक के आरंभ में हो गया- बुद्ध चरित नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन हैः- आचार्यकं योगविधौ द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम। अर्थात “ब्रह्माणों को योग-विधि की शिक्षा देने में राजा जनक आचार्य (उपदेष्टा) हो गये एवं इनके पहले यह आचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था। यहाँ पर योग विधी का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिये क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रंथ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनकजी के बर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित [3] में यह दिखलाने ही के लिये कि गृहस्थाश्रम में रह कर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है? जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाये हुए मार्ग का नाम योग है और यह बात बौद्ध धर्म ग्रंथों से सिद्ध होती है इसीलिये गीता के योग शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिये क्योंकि गीता के कथनानुसार[4] जनक का ही मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योग मार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जायगा। प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में योग शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है। जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में ‘योग’ का प्रधान अर्थ कर्मयोग और योगी का प्रधान अर्थ कर्म योगी है तो फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भगवद्गीता का प्रति पादय विषय क्या है? स्वयं भगवान अपने उपदेश को ‘योग’ कहते हैं [5] बल्कि छठवें [6] अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार [7] में संजय ने भी गीता के उपदेश को योग ही कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज