गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
जब स्वयं भगवान ने ‘योग’ शब्द की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या गीता में कर दी है (योगः कर्मसु कौशलम् - अर्थात् कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहते है); तब सच पूछो तो इस शब्द के मुख्य अर्थ के विषय में कुछ भी शंका नहीं रहनी चाहिये। परन्तु स्वयं भगवान की बतलाई हुई इस व्याख्या पर ध्यान न दे कर, गीता के अनेक टीकाकारों ने योग शब्द के अर्थ की खूब खींचातानी की है और गीता का मथितार्थ भी मनमाना निकाला है, अतएव इस भ्रम को दूर करने के लिये ‘योग’ शब्द का कुछ और भी स्पष्टीकरण होना चाहिये। यह शब्द पहले गीता के दूसरे अध्याय में आया है और वहीं इसका स्पष्ट अर्थ भी बतला दिया गया है। पहले सांख्यशास्त्र के अनुसार भगवान ने अर्जुन को यह समझा दिया कि युद्ध क्यों करना चाहिये; इसके बाद उन्होंने कहा कि ‘अब हम तुझे योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं’[1] और फिर इसका वर्णन किया है कि जो लोग हमेशा यज्ञ-यगादि काम्य कर्मों ही में निमग्र रहते हैं उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है।[2] इसके पश्चात् उन्होंने यह उपदेश दिया है कि बुद्धि को अव्यग्र स्थिर या शांत रखकर’’ आसक्ति को छोड़ दे,परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़’’ और “योगस्थ होकर कर्मों का आचरण कर’’[3]। यहीं पर ‘योग’ शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि “सिद्धि और असिद्धि दोनों में सम बुद्धि रखने को योग कहते है।" इसके बाद यह कह कर, कि “फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा सम बुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है ’’ [4] और “बुद्धि की समता हो जाने पर,कर्म करने वाले को,कर्म संबंधी पाप-पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिये तू इस योगकर्मसु कौशलम्[5]। इससे सिद्ध होता है कि पाप-पुण्य से अलिप्त रह कर कर्म करने की जो समत्व बुद्धि रूप विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है वही ‘कौशल’ है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में ‘योग’ कहा है। इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चल कर “योग्यं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन’’[6] इस श्लोक में स्पष्टकर दिया है। इसके संबंध में कि, ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिये? श्रीशंकराचार्य के पर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार, दो मार्ग है। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी कर्मों को न छोडे़। उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप-पुण्य की बाधा न होने पावे। इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है[7]। संन्यास कहते हैं त्याग को और योग कहते है मेल को; अर्थात कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इन्हीं दो भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे[8] “सांख्ययोगौ’’ (सांख्य और योग) से संक्षिप्त नाम भी दिये गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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