गीता रहस्य -तिलक पृ. 50

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

भारतीय युद्ध के समय द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण ने कहा है कि "एको हि योगोअस्य भवेद्वधाय’’[1] अर्थात द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग (साधन या युक्ति है) और आगे चल कर उन्होंने यह भी कहा है कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिये जरासंध आदि राजाओं को ‘योग’ ही से कैसे मारा था। उद्योग पर्व [2] में कहा गया है कि जब भीष्म ने अम्बा,अम्बिका और अम्बालिका को हरण किया तब अन्य राजा लोग ‘योग योग’ कह कर उनका पीछा करने लगे थे। महाभारत में “योग’’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में अनेक स्थानों पर हुआ है। गीता में ‘योग’ ‘योगी’ अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार आये हैं; परन्तु चार पांच स्थानों के सिवा [3] योग शब्द से ‘पातंजल योग’ अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है। सिर्फ,‘युक्ति, साधन,कुषलता,उपाय,जोड़, मेल’ यही अर्थ कुछ हेर फेर से सारी गीता में पाये जाते हैं। अतएव कह कहते हैं कि गीताशास्त्र के व्यापक शब्दों में ‘योग’ भी एक शब्द है। परन्तु योग शब्द के उक्त सामान्य अर्थों से ही- जैसे साधन,कुशलता,युक्ति आदि से ही-काम नहीं चल सकता,क्योंकि वक्ता की इच्छा के अनुसार यह साधन संन्यास का हो सकता है,कर्म और चित-निरोध का हो सकता है,और मोक्ष का अथवा और भी किसी का हो सकता है।

उदाहरणार्थ,कहीं कहीं गीता में,अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि निर्माण करने की ईश्वरी कुशलता और अद्भुत सामर्थ्य को ‘योग’ कहा गया है[4] और इसी अर्थ में भगवान को ‘योगेश्वर’ कहा है[5]। परन्तु यह कुछ गीता के ‘योग’ शब्द से किस विशेष प्रकार की कुशलता,साधन,युक्ति अथवा उपाय को गीता में विवक्षित समझना चाहिये,उस ग्रंथ ही में योग शब्द की यह निश्चित व्याख्या की गई है- “योगः कर्मसु कौशलम्’’[6] अर्थात कर्म करने की किसी विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति,चतुराई अथवा शैली को योग कहते हैं। शांकर भाष्य में भी “कर्मसु कौशलम्’’ का यही अर्थ लिया गया है –“कर्म में स्वभाव सिद्ध रहने-वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति।" यदि सामान्यतः देखा जाये तो एक ही कर्म को करने के लिये अनेक ‘योग’ और उपाय’ होते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो उसी को ‘योग’ और ‘उपाय’ कहते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हों उसी को ‘योग’ कहते हैं जैसे द्रव्य उपार्जन करना एक कर्म है; इसके अनेक उपाय या साधन हैं- जैसे चोरी करना,जालसाजी करना,भीख मांगना,सेवा करना,ऋण लेना,मेहनत करना आदि,यद्यपि धातु के अर्थानुसार इनमें से हर एक का ‘योग’ कह सकते हैं तथापि यथार्थ में ’द्रव्य- प्राप्ति- योग’ उसी उपाय को कहते हैं जिससे हम अपनी “स्‍वतंत्रता रख कर, मेहनत करते हुए, धर्म प्राप्त कर सकें।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महा. द्रो. 181.31
  2. अ. 172
  3. देखो 56गी. 9.12 और 23
  4. गी. 7.25; 9.5; 10.7;11.8
  5. गी.18.75
  6. गीता 2.50

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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