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पहला प्रकरण
इन गीताओं के संबंध में यह कहने से भी कोई हानि नहीं कि वे इसीलिये रची गई हैं कि किसी विशिष्ट पंथ या विशिष्ट पुराण में भगवद्गीता के समान एक-आध गीता के रहे बिना उस पंथ या पुराण की पूर्णता नहीं हो सकती थी। जिस तरह श्रीभगवान ने भगवद्गीता में अर्जुन को विश्वरूप दिखाकर ज्ञान बतलाया है उसी तरह शिव गीता, देवी गीता और गणेश गीता में भी वर्णन है। शिव गीता, ईश्वर गीता आदि में तो भगवद्गीता के अनेक श्लोक अक्षरश: पाये जाते हैं। यदि ज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो इन सब गीताओं में भगवद्गीता की अपेक्षा कुछ विशेषता नहीं हैं; और, भगवद्गीता में अध्यात्मज्ञान और कर्म का मेल कर देने की जो अपूर्व शैली है वह किसी भी अन्य गीता में नहीं है। भगवद्गीता में पातंजल योग अथवा हठ योग और कर्म त्याग रूप संन्यास का यथोचित वर्णन न देख कर, उसकी पूर्ति के लिये, कृष्णार्जुन संवाद के रूप में, किसी ने उत्तर गीता पीछे से लिख डाली है। अवधूत और अष्टावक्र आदि गीता बिलकुल एक देशीय हैं क्योंकि इनमें केवल संन्यास-मार्ग का ही प्रतिपादन किया गया है। यम गीता और पांडव गीता तो केवल भक्ति-विषयक संक्षिप्त स्तोत्रों के समान है। शिव गीता, गणेश गीता और सूर्य गीता ऐसी नहीं है।
यद्यपि इनमें ज्ञान और कर्म के समुच्चय का युक्ति युक्त समर्थन अवश्य किया गया है तथापि इनमें नवीनता कुछ भी नहीं है, क्योंकि यह विषय प्रायः भगवद्गीता से ही लिया गया है। इन कारणों से भगवद्गीता के गंभीर तथा व्यापक तेज के सामने बाद की बनी हुई कोई भी पौराणिक गीता ठहर नहीं सकी और इन नकली गीताओं से उल्टा भगवद्गीता का ही महत्त्व अधिक बढ़ गया है। यही कारण है कि ‘भगवद्गीता’ का ‘गीता’ नाम प्रचलित हो गया है। अध्यात्म रामायण और योग वसिष्ठ यद्यपि विस्तृत ग्रंथ हैं तो भी वे पीछे बने हैं और यह बात उनकी रचना से ही स्पष्ट मालूम हो जाती है। मद्रास का ‘गुरु ज्ञान वसिष्ठ तत्त्वसारायण’ नामक ग्रंथ कई एक के मतानुसार बहुत प्राचीन है; परन्तु हम ऐसा नहीं समझते; क्योंकि उसमें १०८ उपनिषदों का उल्लेख है जिनकी प्राचीनता सिद्ध नहीं हो सकती। सूर्य गीता में विशिष्टाद्धैत मत का उल्लेख पाया जाता है[1] और कई स्थानों में भगवद्गीता ही का युक्तिवाद ही लिया हुआ का जान पड़ता है।[2] इसलिये यह ग्रंथ भी बहुत पीछे से- श्रीशंकराचार्य के भी बाद बनाया गया होगा।
अनेक गीताओं के होने पर भी भगवद्गीता की श्रेष्ठता निर्विवाद सिद्ध है। इसी कारण उत्तरकालीन वैदिक धर्मीय पंडितों ने, अन्य गीताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया और वे भगवद्गीता ही की परीक्षा करने और उसी के तत्त्व अपने बंधुओं को समझा देने में,अपनी कृत कृत्यता मानने लगे। ग्रंथ की दो प्रकार से परीक्षा की जाती है। एक अंतरंग-परीक्षा और दूसरी बहिरंग-परीक्षा कहलाती है। पूरे ग्रंथ को देख कर उसके मर्म, रहस्य और प्रमेय को ढूँढ निकालना 'अंतरंग-परीक्षा' है।
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