गीता रहस्य -तिलक पृ. 49

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

यह बात पिछले प्रकरण में कही गई है कि कहीं कहीं तो शास्त्र की आज्ञा भी परस्पर-विरुद्ध होती है। ऐसे समय में मनुष्य को किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिये? इस बात का निर्णय करने के लिये कोई युक्ति है या नहीं यदि है,तो वह कौन सी बस,यही गीता का मुख्य विषय है। इस विषय में कर्म के उपर्युक्त अनेक मदों पर ध्यान देने की कोई आवश्‍यकता नहीं। यज्ञ-याग आदि वैदिक कर्म तथा चातुर्वणर्य के कर्म के विषय में मीमांसकों ने जो सिद्धांत किये हैं वे गीता में प्रतिपादित कर्म योग से कहाँ तक मिलते हैं, यह दिखाने के लिये प्रसंगानुसार गीता में मीमांसकों के कथन का भी कुछ विचार किया गया है; और अंतिम अध्याय [1] में इस पर भी विचार किया है कि ज्ञानी पुरुष को यज्ञ-याग आदि कर्म करना चाहिये या नहीं। परन्तु गीता के मुख्य प्रतिपादय विषय का क्षेत्र इससे भी व्यापक है, इसलिये गीता में ‘कर्म’ शब्द का ‘केवल श्रौत अथवा स्मार्त्त कर्म’ इतना ही संकुचित अर्थ नहीं लिया जाना चाहिये,किंतु उससे अधिक व्यापक रूप में लेना चाहिये।

सारांश, मनुष्य जो कुछ करता है- जैसे खाना,पीना,खेलना,रहना,उठना,बैठना,श्वसोच्छावास करना,हंसना,रोना,सूंघना,देखना,बोलना,सुनना,चलना,देना-लेना,सोना, जागना,मारना,लड़ना,मनन और ध्यान करना,आज्ञा और निषेध करना,दान देना,यज्ञ-याग करना,खेती और व्यापार-धंधा करना,इच्छा करना,निश्‍चय करना,चुप रहना इत्यादि इत्यादि- यह सब भगवद्गीता के अनुसार ‘कर्म’ ही है; चाहे वह कर्म कायिक हो; वाचिक हो अथवा मानसिक हो [2] और तो क्या,जीना-मरना’ इन दो में से किसको स्वीकार किया जावे। इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्‍द का अर्थ ‘कर्तव्य कर्म’ अथवा ‘विहित कर्म’ हो जाता है।[3] मनुष्य के कर्म के विषय में यहाँ तक विचार हो चुका। अब इसके आगे बढ़कर सब चर-अचर सृष्टि के भी- अचेतन वस्तु के भी- व्यापार में ‘कर्म’ शब्द ही का उपयोग होता है। इस विषय का विचार आगे कर्म-विपाक प्रक्रिया में किया जायेगा।

कर्म शब्द से भी अधिक भ्रम-कारक शब्द ‘योग’ है। आज कल इस शब्द का “रूढ़ार्थ" प्राणायाम आदिक साधनों से चितवृतियों या इन्द्रियों का निरोध करना,अथवा“पातंजल सूत्रोक्त समाधि या ध्यान योग’’ है। उपनिषदों में भी इसी अर्थ से इस शब्द का प्रयोग हुआ है [4]। परन्तु ध्यान में रखना चाहिये कि यह संकुचित अर्थ भगवद्गीता में विवक्षित नहीं है। ‘योग’ शब्द ‘युज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ “जोड़,मेल,मिलाप,एकता,एकत्र अवस्थिति’’ इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के “उपाय,साधन, युक्ति या कर्म" को भी योग कहते हैं। यही सब अर्थ अमरकोश[5] में इस तरह से दिये हुए हैं “योगः संहननोपायध्यानसंगतियुक्तिसु’’। फलित ज्योतिष में कोई ग्रह यदि इष्ट अथवा अनिष्ट हों तो उन ग्रहों का ‘योग’ इष्ट या अनिष्ट कहलाता है; और ‘योगक्षेम’ पद में ‘योग’ शब्द का अर्थ “अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना’’ लिया गया है[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.18.9
  2. गीता 5.8,9
  3. गी.4.19
  4. कठ. 9.11
  5. 3.3.22
  6. गी. 9.22

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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