गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गये:- एक ‘यज्ञार्थ’[1] कर्म,अर्थात जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते,अतएव अबंधक है; और दूसरे ‘पुरषार्थ’ कर्म,अर्थात जो पुरुष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। संहिता और ब्राह्मण ग्रंथो में यज्ञ-याग आदि का ही वर्णन है। यद्यपि ऋग्वेद संहिता में इन्द्र आदि देवताओं के स्तुति-संबंधी सूक्त हैं,तथापि मीमांसकगण कहते हैं कि सब श्रुति ग्रंथ यज्ञ आदि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के समय में ही किया गया है। इन कर्मठ,याज्ञिक या केवल कर्म वादियों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ-याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है। नहीं तो नहीं होतीं; चाहे ये यज्ञ-याग आदि कर्म अज्ञानता से किये जायं या ब्रह्माज्ञान से। इसलिये निश्चय किया गया है कि यज्ञ-याग से या ब्रह्माज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राहय माने गये हैं, तथापि इनकी योग्यता ब्रह्माज्ञान से कम परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता; मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्रह्माज्ञान ही की नितांत आवश्यकताहै। भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ-याग आदि काम्य कर्मों का वर्णन किया गया है- “वेदवादरताः पार्थ नान्दस्तीति वादिनः’’[2]- वे ब्रह्माज्ञान के बिना किये जाने वाले उपर्युक्त यज्ञ-याग आदि कर्म ही हैं। इसी तरह यह भी मीमांसकों ही का मत का अनुकरण है कि “यज्ञार्थात्कर्मणोअन्यत्र लोकोअयं कर्म बंधनः’’ [3]अर्थात यज्ञार्थ किये गये कर्म बंधक नहीं हैं; शेष सब कर्म बंधक है। इन यज्ञ-याग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त,अर्थात श्रौत कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वणर्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मुनस्मृति आदि धर्म ग्रन्थों में वर्णित है; जैसे क्षत्रिय के लिये युद्ध और वैश्य के लिये वाणिज्य।पहले पहले इन वर्णाश्रम-कर्मों का प्रतिपादन स्मृति-ग्रंथों मे किया गया था। इसलिये इन्हें ‘स्मार्त्त कर्म’ या ‘स्मार्त्त यज्ञ’ भी कहते हैं। इन श्रौत स्मार्त्त कर्मों के सिवा और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत,उपवास आदि। इनका विस्तृत प्रतिपादन पहले सिर्फ पुराणों में किया गया है इसलिये इन्हें ‘पौराणिक-कर्म’ कह सकेंगे। इन सब कर्मों के और भी तीन- नित्य,नैमित्तिक और काम्य-भेद किये गये हैं। स्नान,संध्या आदि जो हमें किये जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्य कर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती,परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते है जिन्हें,पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने से,करना पड़ता है; जैसे अनिष्ट ग्रहों की शांति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिये हम शांति और प्रायश्चित करते हैं वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिये शास्त्रनुसार कोई कर्म करते हैं तब उसे काम्य-धर्म कहते है; जैसे वर्षा होने के लिये या पुत्र प्राप्ति के लिये यज्ञ करना। नित्य,नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवा और भी कर्म हैं,जैसे मदिरापान इत्यादि,जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है; इसलिये ये निषिद्ध कर्म कौन कौन हैं? ये सब बातें धर्म शास्त्रों में निश्चितकर दी गई हैं। यदि कोई किसी धर्मशास्त्री से पूछें कि अमुक कर्म पुण्यप्रद है या पाप कारक, तो वह सबसे पहले इस बात का विचार करेगा कि शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार वह कर्म यज्ञार्थं है या पुरुषार्थ,नित्य है या नैमित्तिक अथवा काम्य है या निषिद्ध और इन बातों पर विचार करके फिर वह अपना निर्णय करेगा। परन्तु भगवद्गीता की दृष्टि इससे भी व्यापक और विस्तीर्ण है। मान लीजिये कि अमुक एक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है,अथवा वह विहित कर्म ही था; तो इतने ही से उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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