गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
महाभारत[1] में यह कथा है कि किसी समय बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा और विश्वामित्र पर बहुत बड़ी आपत्ति आई। तब उन्होंने किसी श्वपच (चाणडाल) के घर से कुते का मांस चुराया और वे इस अभक्ष्य भोजन से अपनी रक्षा करने के लिये प्रवृत हुए। उस समय श्वपच ने विश्वामित्र को “पश्च पंचनखा भक्ष्याः” (मनु. 5. 18)[2] इत्यादि शास्त्रार्थ बतलाकर अभक्ष्य भक्षण और वह भी चोरी से न करने के विषय में बहुत उपदेश किया। परन्तु विश्वामित्र ने उसको डांट कर यह उत्तर दियाः - पिबन्तयेवोदकं गावो मंड्केषु रूवत्स्वपि। “अर! यद्यपि मेंढक टर्र टर्र किया करते हैं तो भी गौएं पानी पीना बंद नहीं करतीं; चुप रह! मुझको धर्म ज्ञान बताने का तेरा अधिकार नहीं है। व्यर्थ अपनी प्रशंसा मत कर।” उसी समय विश्वामित्र ने यह भी कहा है कि “जीवितं मरणात्श्रेयो जीवनधर्ममवाप्नुयात”- अर्थात यदि जिंदा रहेंगें तो धर्म का आचरण कर सकेंगे; इसलिये धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है। मनुजी ने अजीगर्त, वामदेव आदि अन्यान्य ऋषियों के उदाहरण दिये हैं जिन्होने, ऐसे संकट के समय, इसी प्रकार आचरण किया है[3] हाब्स नामक अंग्रेज ग्रंथकार लिखता है” किसी कठिन अकाल के समय जब, अनाज मोल न मिले या दान भी न मिले तब, यदि पेट भरने के लिये कोई चोरी या साहस कर्म करे तो उसका यह अपराध माफ समझा जाता है [4]।” और, मिल ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसे समय चोरी करके अपना जीवन बचाना मनुष्य का कर्तव्य है! ’मरने से जिंदा रहना श्रेयस्कर है- क्या विश्वामित्र का यह तत्त्व सर्वथा
अपवादरहित कहा जा सकता है? नहीं। इस जगत में सिर्फ जिंदा रहना ही कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कौए भी काकबलि खा कर कई वर्ष तक जीते रहते है! यही सोच कर वीर पत्नी विदुला अपने पुत्र से कहती है कि, बिछौने पर पड़े पड़े सड़ जाने या घर में सौ वर्ष की आयु को व्यर्थ व्यतीत कर देने की अपेक्षा, यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रकट करके मर जाएगा तो अच्छा होगा- “मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरं”[5]। यदि यह बात सच है कि, आज नही तो कल, अंत में सौ वर्ष के बाद मरना जरूर है[6]; तो फिर उसके लिये रोने या डरने से क्या लाभ है? अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तो आत्मा नित्य और अमर है; इसलिये मृत्यु का विचार करते समय, सिर्फ इस शरीर नाशवान है; परन्तु आत्मा के कल्याण के लिये इस जगत में जो कुछ करना है उसका एक मात्र साधन यही नाशवान मनुष्य देह है। इसीलिये मनु ने कहा है “आत्मानं सततं रक्षेत दारैरपिधनैरपि”- अर्थात स्त्री और सम्पत्ति की अपेक्षा हमको पहले स्वयं अपनी ही रक्षा करनी चाहिये[7]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शा. 141
- ↑ मनु और याज्ञवल्क्य ने कहा है कि कुत्ता, बन्दर आदि जिन जानवरों के पांच पांच नख होते हैं उन्हीं में से खरगोश, कछुआ, गोह आदि पांच प्रकार के जानवरों का मांस भक्ष्य है, (मनु. 5.18; याज्ञ. 1.177)। इन पांच जानवरों के अतिरिक्त मनुजी ने, खंड’ अर्थात गेड़े को भी भक्ष्य माना है। परन्तु टीकाकार का कथन है कि इस विष्य में विकल्प है। इस विकल्प को छोड़ देने पर शेष पांच ही जानवर रहते हैं और उन्हीं का मांस भक्ष्य समझा गया है। “पंच पंचनखाभक्ष्याः” का यही अर्थ; तथापि मीमांसकों के मतानुसार इस व्यवस्था का भावार्थ यही है कि, जिन लोगों को मांस खाने की सम्मति दी गई है वे उक्त पंचनखी पांच जानवरों के सिवा, और किसी जानवर का मांस न खाय। इसका भावार्थ यह नहीं है कि, इन जानवरों का मांस खाना ही चाहिये। इस पारिभाषिक मुख्य उदाहरण है। जबकि मांस खाना ही निषिद्ध माना गया है तब इन पांच जानवरों का मांस खाना भी निषिद्ध ही समझा जाना चाहिये।
- ↑ मनु. 10.105-108
- ↑ Hobbes’ Leviathan, Part 2. Chap. 27. P. 139 ( Morey’s Universal Library Edition ). Milli’s Utilitarianism, chap, V.P. 95. ( 15 th Ed. ) –” Thus, to save a life, it may not only be allowable but a duty to steal etc.”
- ↑ महा.उ.162.15
- ↑ भाग.10.1.38; गी.2.27
- ↑ मनु. 7.213
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