गीता रहस्य -तिलक पृ. 32

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्त्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है उसको "सब से अधिक लोगों का सब से अधिक सुख” [1]। इसी नियम के अनुसार उसने यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय और इसी प्रकार बीमार आदमियों को[2], अपने शत्रुओं को, चोरों को और[3] जो अन्याय से प्रश्न करें उनको उत्‍तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है[4]। मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी इसी अपवाद का समावेश किया गया है[5]

इन अपवादों के अतिरिक्त सिजविक अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि “यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिये तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे औरों के साथ, तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से, हमेशा सच ही बोला करें [6]” किसी अन्य स्थान में वह लिखता है कि यही रियासत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है। लेस्ली स्टीफन नाम का एक और ग्रंथकार है। उसने नीतिशास्त्र का विवेचन आधिभौतिक दृष्टि से किया है। वह भी अपने ग्रंथ में ऐसे ही उदाहरण देकर अंत में लिखता है” किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिये। यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूठ बोलने से ही कल्याण होगा तो मैं सत्य बोलने के लिये कभी तैयार नहीं रहूंगा। मेरे इस विश्वास में यह भाव भी हो सकता है कि, इस समय, झूठ बोलना ही मेरा कर्तव्य है[7]।”

ग्रीन साहब ने नीतिशास्त्र का विचार अध्यात्म दृष्टि से किया है। आप, उक्त प्रसंगों का उल्लेख करके, स्पष्ट रीति से कहते हैं कि ऐसे समय नीतिशास्त्र मनुष्य के संदेह की निवृति कर नहीं सकता। अंत में आपने यह सिद्धांत लिखा है” नीतिशास्त्र, यह नहीं कहते कि किसी साधारण नियम के अनुसार, सिर्फ यह समझ कर कि वह नियम है, हमेशा चलने में कुछ विशेष महत्त्व है; किंतु उसका कथन सिर्फ यही कि, सामान्यतः, उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिये श्रेयस्कर है। इसका कारण यह है कि, ऐसे समय, हम लोग, केवल नीति के लिये, अपनी लोभ मूलक नीच मनोवृतियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं [8]”। नीतिशास्त्र पर ग्रंथ लिखने वाले वेन, वेबेल आदि अन्य अंग्रेज पंडितों का भी ऐसा ही मत है [9]। यदि उक्त अंग्रेज ग्रंथकारों के मतों की तुलना हमारे धर्म शास्त्रकारों के बनाये हुए नियमों के साथ की जाय, तो यह बात सहज ही ध्यान में आ जायगी कि सत्य के विषय में अभिमानी कौन है? इसमें संदेह नहीं कि हमारे शास्त्रों में कहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बहुत लोगों का बहुत सुख कहते हैं
  2. यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड जाने का भय हो
  3. यदि बिना बोले काम ने सटता हो तो
  4. Sidgwick’s Methods of Ethics, Book 3. Chap. 11 § 6. P. 355 ( 7 th Ed. ) . Also, see pp. 315-317 ( same Ed. ).
  5. Milli’s Utilitarianism, Chap. 2. Pp. 33-34 ( 15 th Ed. Longmans 1907).
  6. Sidgwick’s Methods of Ethics, Book 4. Chap 3 § 7. P. 454 ( 7 th Ed. ); and Book 2. Chap 5. § 3 p. 169.
  7. Leslie Stephen’s Science of Ethics, Chap. 9 § 29. P. 369 ( 2 nd Ed. ) .” And the oartainty might be of such a kind as to make me think it a duty to lie.”
  8. Green’s Prolegomena to Ethics, § 315 . p. 379 ( 5 th Cheaper edition).
  9. Bain’s Mental and Moral Science, p. 445 ( Ed. 1875 ); and Whewell’s Elements of Morality, Book 2. Chaps. 13 and 14. ( 4 th Ed. 1864).

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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