करुण बचन सुनते ही उद्धवके हरि हुए व्यथित अति दीन।
सिहर उठा सहसा मङ्गल-वपु, विधु-निन्दक मुख-चन्द्र मलीन॥
रुका कण्ठ, कुछ बोल न पाये, आँखें लगीं बहाने नीर।
बढ़ा विरह-दावानल दारुण, लगा दहकने दिव्य शरीर॥
बोले गद्गद गिरा धैर्य धर, दीर्घकाल तक रहकर मौन।
’उद्धव ! मेरी विषम व्यथा को, है जग सुनने वाला कौन ?
बता नहीं सकता मैं, कैसा विषम हृदय में दारुण दाह।
कैसी मर्मवेधिनी पीड़ा, कैसी प्रबल मिलनकी चाह॥
सुधा-समान सरस युचि सुन्दर सुस्निग्ध राधिका के मधु बोल।
अतुलनीय अनवद्य नित्य सौन्दर्य, मधुर माधुर्य अतोल॥
सरल हृदय, सेवा, सहिष्णुता, त्याग, समर्पण, दैन्य अनूप।
भूल नहीं सकता मैं, अगणित-गुण-गण-संयुत राधा-रूप॥
मधुर मनोहर महिमामय वह रसमय शुचितम रास-विलास।
पावन विविध विनोद सुधा-रसपूर्ण मधुर मुख-पङ्कज-हास॥
परम मधुरतम निभृत निकुञ्जों का वह शुचि आनन्द-विहार।
भूल नहीं सकता पल, होती मधुर-स्मृति मन बारम्बार॥
सर्वत्याग कर, मन में केवल रखती मेरा सुख-अभिलाष।
इसी हेतु ये जीतीं जगमें, करतीं नित वृन्दावन-वास॥