करि मन नंद-नंदन ध्यान !
सेव चरन-सरोज सीतल, तजि बिषय-रस-पान।
जानु-जंघ त्रिभंग सुंदर, कलित कंचन-दंड।
काछनी कटि पीतपट-दुति, कमल-केसर-खंड।
मनौ मधुर मराल-छौना, किंकिनी-कल-राव।
नाभि-ह्रद, रोमावली-अलि, चले सहज सुभाव।
कंठ मुक्तामाल, मलयज, उर बनी बनमाल।
सुरसरी के तीर मानौ लता स्याम तमाल।
बाहु-पानि सरोज-पल्लव, धरे मृदु मुख बेनु।
अति बिराजत बदन-बिधु, पर सुरभि-रंजित-रेनु।
अधर, दसन, कपोल, नासा, परम सुंदर नैन।
चलित कुंडल गंड मंडल, मनहुँ निर्तत मैन।
कुटिल भ्रू पर तिलक रेखा, सीस सिखिनि-सिखंड।
मनु मदन धनु-सर सँधाने, देखि घन-कोदंड।
सूर श्रीगोपाल की छवि, दृष्टि भरि-भरि लेहु।
प्रानपति की निरखि सोभा, पलक परन न देहु।।307।।
इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें