ऐसौ जो पावस रितु प्रथम2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


निकट नैन निहारि माधौ, मन मिलन की आस।
मनुज, मृग, पसु पंछि परिमित, और अमित जु नाम।।
सुमिरि देस, विदेस परिहरि, सकल आवहिं धाम।
यहै चित्त उपाय सोचति कछु न परत बिचार।।
कौन हित ब्रज बास बिसरयौ, निकट नद कुमार।
परम सुहृद सुजान सुदर, ललित गति मृदु हास।।
चारु लोल कपोल कुंडल, डोल ललित प्रकास।
बेनुकर बहु बिधि बजावत, गोप सिसु चहुँ पास।।
सुदिन कब जब आँखि देखै, बहुरि बाल बिलास।
बार बार सु बिरहिनी अति, बिरह व्याकुल होति।।
बात बेग बिलोल जैसे, दीन दीपक जोति।
सुनि बिलाप कृपालु ‘सूरजदास’ करि परतीति।।
दरस दै दुख दूरि कीजे, प्रेम कौ यह रीति।। 3314।।

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