ऐसे कान्ह भक्त हितकारी।
जहाँ जहाँ जिहि काल सम्हारे, तहँ तहँ त्रास निवारो।
धर्में-पुत्र जब जज्ञ उपायौ, द्विज मुख ह्वै पन लीन्हौं।
अस्व-निमित उत्तर दिसि के पथ गमन् धनंजय कीन्हौं।
अहिपति-सुता सुवन सन्मुख ह्वै वचन कह्यौ इक हीनौ।
पारथ बिमल बभ्रुवाहन कौं सीस-खिलौना दीनौ।
इतनी सुनत कुंति उठि धाई, बरषत लोचन नीर।
पुत्र-कबंध अंक भरि लीन्हौ, धरति न इक छिन धीर।
लै लै स्त्रोन हृदय लपटावति, चुम्बति भुजा गँभीर।
त्यागति प्रान निरखि सायक धनु, गति-मति-बिकल-सरीर।
ठाढ़े भीम, नकुल, सहदेवअरु नृप सब कृष्न समेत।
पौढ़े कहा समर-सेज्या सुत उठि किन उत्तर देत।
थकित भए कछु मंत्र न पुरई कीने मोह अचेत।
या रथ बैठि बंधु की गर्जहिं पुरवै को कुरुखेत?
काकौ बदन निहारि द्रौपदी दीन दुखी संभरिहै?
काकी ध्वजा बैठि कपि किलकिहि, किहिं भय दुरजन डरिहै?
काके हित श्रीपति ह्याँ ऐहैं’ संकट रच्छा करिहैं?
को कौरव-दल-सिंधु मथन करि या दुख पार उतरिहै।
चिंता मानि, चितै अंतर-गति, नाग-लोक कौं धाए।
पारथ-सीस सोधि अष्टाकुल, तब जदुनंदन ल्याए।
अमृत गिरा बहु बरषि सूर प्रभु, भुज गहि पार्थ उठाए।
अस्व समेत बभ्रुबाहन लै, सुफल जज्ञ-हित आए।।29।।