ऐसी को सकै करि तुम बिन मुरारी।
सुरनि के कहत ही, धारि कूरम तनहिं मंदराचन लियौ पीठि धारी।
सिंधु मथि सुरासुर अमृत बाहर कियौ , बलि असुर ले चल्यौ सो छिनाइ।
मोहिनो-रूप तुम दरस तिनकौं दियौ, आनि तब सबनि बिनती सुनाई।
अमृत यह बाँटि कै देहु तुम सबनि को, कृपा करि रारि डारौ मिटाई।
सुर-असुर-पाँति करि, सुरा असुरनि दई , सुरनि कौ अमृत दीन्हौ पियाई।
राहु-सिर, केतु धर भयौ यह तबहिं तें , सूर-ससि दियौ ताकौ बताई।
चक्र सौ काटि सिर, कियो द्वे टूक तब, असुरहूँ देवगति तुरत पाई।
भक्तबच्छल, कृपाकरन, असरन-सरन, पतित -उद्धरन कहै वेद गाई।
चारहूँ जुग करी कृपा परकार जेहि, सूरहू पर करौ तेहि सुभाई।।9।।