ऐसी को करी अरु भक्त काजै।
जैसी जगदीश जिय धरी लाजै।।
हिरनकस्यप बढ़यो उदय अरु अस्त लौं, हठी प्रहलाद चित चरन लायौ।
भीर के परे तैं धीर सबहिनि तजी, खंभ तैं प्रगट ह्वै जन छुड़ायौ।
ग्रस्यौ गज ग्राह लै चल्यौ पाताल कौं, काल कैं त्रास मुख नाम आयौ।
छाँड़ि सुख धाम अरु गरुड़ तजि साँवरौ, पवन के गवन तैं अधिक धायौ।
कोपि कौरव गहे केस सभा मैं, पांडु की वधू जस नैंकु गायौ।
लाज के साज मैं हुती ज्यौं द्रौपदी, बढ़यौ तन-चीर नहिं अंत पायौ।
रोर कै जोर तैं सोर धरनी कियौ, चल्यौ द्विज द्वारिका-द्वार ठाढ़ौ।
जोरि अंजलि मिले, छोरि तंदुल लए, इंद्र के विभव तैं अधिक बाढ़ौ।
सक्र कौ दान-बलि मान ग्वारनि लियौ, गह्यौ गिरि पानि, जस जगत छायौ।
यहै जिय जानि कैं अंध भव त्रास तै, सूर कामी कुटिल सरन आयौ।।5।।