ऐसी कब करिहौ गोपाल।
मनसा-नाथ, मनोरथ-दाता, हौ प्रभु दीनदयाल।
चरननि चित्त निरंतर अनुरत, रसना चरित-रसाल।
लोचन सजल, प्रेम-पुलकित तन, गर अंचल, कर माल।
लहिं बिधि लखत, झुकाइ रहै जम अपनैं हौं भय भाल।
सूर सुजस-रागी न डरत मन, सुनि जातना कराल।।189।।
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