ए अलि कहा जोग मैं नीकौ।
तजि रस रीति नंदनंदन की, सिखवत निरगुर फीकौ।।
देखत सुनत नाहिं कछु स्रवननि, जोति जोति करि धावत।
सुंदर स्याम कृपालु दयानिधि, कैसै हौं विसरावत।।
सुनि रसाल मुरली की सुर धुनि, सुर मुनि कौतुक भूले।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेली, गोपिन के मन फूले।।
लोक कानि कुल के भ्रम छाँड़े, प्रभु सँग घर बन खेली।
अब तुम ‘सूर’ खवावन आए, जोग जहर की बेली।।3697।।