स्याम बलराम यह सुनत धाए2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू



एक ही बान संधानि रथ के तुरग, ध्वजा अरु धनुष सब काटि डारे।
संख कौ सबद करि लियौ असुर तेज हरि, सुधनि रही फैलि नभ पृथ्वी सारै।।
देखि यह असुर की मातु धाई नगन, कृस्न भगवान कै निकट आई।
नगर तिय देखिबौ जुगत नाही कह्यौ, जानि यह हरि रहे मुख फिराई।।
असुर यह घात तकि ग़यौ रन तै सटकि, तप्त जुर दियौ तब सिव पठाई।
सीत जुर जुद्ध करि कियौ विह्वल ताहि, तिन तब आइ बिनती सुनाई।।
प्रान दाता तुम्ही स्थूल सूछम तुहीं, सर्व आतमा तुही धर्म पालक।
ज्ञान तुहिं कर्म तुहिं विस्वकर्मा तुही, तू अखिल सक्ति प्रभु असुर घालक।।
सीत अरु तप्त कौ बल चलै प्रभु तहाँ, जहाँ नहिं होइ सुमिरन तुम्हारौ।
करत दंडवत मैं तुम्है करुना करन, कृपा करि ओर मेरै निहारौ।।
सुनत ये वचन हरि कह्यौ अब भै न करि, मैं कृपा करी तोहि त्रिसिरधारी।
सीत अरु तप्त कौ भय न ह्वैहै, ताहि, सुनै यह कथा जो चित्तधारी।।
तप्त जुर गयौ सिर नाइ हरि कौ तुरत बानासुर बहुरि रणभूमि आयौ।
चक्र परहार हरि कियौ ताकौ निरखि, रुद्र सिर नाइ तब कहि सुनायौ।।

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