एक गाउँ के बसत बार इक, कीन्ही हरि पहिचानि।
निसिदिन रहे दरस की आसा, मिले अचानक आनि।।
भागदसा आँगनही आए, सुंदर सरब सुजानि।
नीकै करि देखनहुँ न पाए, बहि न जाइ कुलकानि।।
कल न परति हरि दरसनबिन री, मोहिं परी यह बानि।
'सूरदास' बिकानी री हौ नंदसुवन कै पानि।।1883।।