ऋतु बसंत के आगमहि 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग श्रीहठी


सुनि लेहु ललन बलवीर, मिलि झूमक हो।
अब हम तुमहि नंगाइहै, मिलि झूमक हो।।
मुसुकात कहा जदुराइ, मिलि झूमक हो।
की हमसौं हा हा करो, मिलि झूमक हो।।
की परहु कुँवरि कै पाइ, मिलि झूमक हो।
बल बिलोकनि मन हरयौ, मिलि झूमक हो।।
ठगि तुमहि रही ब्रजबाल, मिलि झूमक हो।
फगुआ बहुत मँगाइ दियो, मिलि झूमक हो।।
मधु मेवा मधुर रसाल, मिलि झूमक हो।
कहि मोहन ब्रजसुंदरी, मिलि झूमक हो।।
तब धाइ धरे बल घेरि, मिलि झूमक हो।
संक सकुच सब छाँड़ि कै, मिलि झूमक हो।।
चहुँ पास रही मुख हेरि, मिलि झूमक हो।
कनक कलस भरि कुमकुमा, मिलि झूमक हो।।
धरि ढारि दिये सिर आनि, मिलि झूमक हो।
चंदन बदन अरगजा, मिलि झूमक हो।।
सब छिरकतिं करतिं न कानि, मिलि झूमक हो।
खेलि फाग अनुराग बढ्यौ, मिलि झूमक हो।।
फिरि चले जमुन जल न्हान, मिलि झूमक हो।
द्वितिया बैठि सिंहासनै, मिलि झूमक हो।।
दोउ देत रतन-मनि-दान, मिलि झूमक हो।
इहिं बिधि हरि सँग खेलही, मिलि झूमक हो।।
गन-गोकुल-नारि अनंत, मिलि झूमक हो।
'सूर' सबनि कौ सुख दियौ, मिलि झूमक हो।।
रमि रसिक राधिका कत, मिलि झूमक हो।।2903।।

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