ऊधौ यह हित लागत काहैं।
निसि दिन नैन तपत दरसन कौ, तुम जु कहत हिय माहै।।
पलक न परत चहूँ दिसि चितवति, विरहानल के दाहै।
इतनी आरति काहै न मिलही, जौ पै स्याम इहाँ है।।
पा लागौ ऐसीहिं रहन दै, अवधि आस जल थाहै।
जनि बोरहिं निरगुन समुद्र मैं, बहुरि न पैहै चाहैं।।
जासौं उपजी प्रीति रीति अलि, तासौ बनै निबाहै।
‘सूर’ कहा लै करै पपीहा, एते सर सरिता है।।3625।।