ऊधौ नीकी लाँबी चीठी।
गोपीनाथ लिखी कर अपनै, यामैं जोग बसीठी।।
आँजहु भस्म जु मुद्रा सेल्ही, हियै लगत सब सीठी।
हम राती मोहन मूरति सौ, अरु मुरली धुनि मीठी।।
एजू तुम तौ स्याम सनेही, ह्याँ मिलवत सब ईठी।
यह कलक तुमही कौ चढ़िहै, जैसै रंग मजीठी।।
हम दासिनि की विनती कहियौ, जो नैननि तुम दीठी।
'सूरदास' प्रभु दीन बंधु है, करिहै कहा उवीठी।। 3492।।