ऊधौ ना हम बिरहिनि ना तुम दास -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


(ऊधौ) ना हम विरहिनि ना तुम दास।
कहत सुनत घट प्रान रहत है, हरि तजि भजहु अकास।।
विरही मीन मरै जल बिछुरै, छाँड़ि जियन की आस।
दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास।।
पकज परम कमल मैं विहरत, विधि कियौ नीर निरास।
राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास।।
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कै वनवास।
‘सूर’ स्याम सौ दृढ़ व्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास।।3813।।

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